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बुधवार, 18 जुलाई 2012

एक मंज़र



उफक के दरीचों से किरणों ने झाँका
फ़ज़ा तन गयी रास्ते मुस्कुराए

सिमटने लगी नर्म कोहरे की चादर
जवाँ शाखसारों ने घूँघट उठाये

परिंदों की आवाज़ से खेत चौंके
पुर  असरार  लय  में रहट गुनगुनाये

हंसी शबनम आलूद  पगडंडियों से
लिपटने लगे सब्ज़ पेड़ों के साए

वो दूर टीले पे आँचल सा झलका
तसव्वुर में लाखों दिए झिलमिलाये


                                                      - साहिर लुधियानवी

9 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

प्रकृति का सौंदर्य अनूठा ..

समग्र गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष

Sunil Deepak ने कहा…

कितनी सुन्दर कल्पना कोहरे के घूँघट को उठाते शाखसारों की :)

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

ऐ खुदा! आँखों को मंज़र दे तो ऐसी नज़र भी दे।

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

वाह....
क्या मंज़र है.....खुदा की नेमत..
सांझा करने का शुक्रिया लोरी जी.

अनु

उम्मतें ने कहा…

ये सब पढ़कर मैं पगला जाता हूं , फिर एक शिकवा कि ये सलाहियत परवरदिगार ने मुझे क्यों ना बख्शी !

उम्मतें ने कहा…

ये सब पढ़कर मैं पगला जाता हूं , फिर एक शिकवा कि ये सलाहियत परवरदिगार ने मुझे क्यों ना बख्शी !

शिवनाथ कुमार ने कहा…

बहुत खूब , बहुत ही सुंदर ....
सही कहा देवेन्द्र जी ने
ऐ खुदा! आँखों को मंज़र दे तो ऐसी नज़र भी दे।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

परिंदों की आवाज़ से खेत चौंके
पुर असरार लय में रहट गुनगुनाये

बहुत सुंदर..... आभार पढवाने का ....

इन्दु पुरी ने कहा…

sahir sahb ki nzr.......kmaaal! sahir sahb ke klm ...lajwab. tumhari psnd...... waah! waah!
jeeti rho