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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

अपनी यूनिवर्सिटी की नन्ही सी दुनिया से निकलकर, एक अनजान शहर, अनजान नगर से शुरू हुई ज़िंदगी ने मुझे लुबना से मिलाया था, और मै नहीं जानता था कि यह रब की मर्जी थी या इत्तेफाक कि हम दोनों एक ही साथ, एक ही घड़ी इस शहर के बस अड्डे पर उतरे थेवह खामोश नज़रों से इधर उधर तक मंजिल की थाह लेने की कोशिश कर रही थी, और मै, उससे बेखबर लम्बे लम्बे डग भरता अपने मंजिल तक पहुचने का ठिकाना कर रहा था। "एक्सक्यूज़मी" उसकी तमीजदार आवाज़ ने मुझे चौकाया। "ज्जी! " मैंने जवाबन कहा। "आप मुझे यूनिवर्सिटी का रास्ता बता सकते हैं क्या? दरअसल मै इस शहर में नयी हूँ। "मै भी वहीं जा रहा हूँ, आप चाहें तो साथ हो लें! " वह बड़ी बेबाकी से मेरे साथ चलने लगी हैरत हुई मुझे! कितनी आसानी से भरोसा कर लिया इसने मुझ पर! रस्मी बातचीत के दौरान मालूम हुआ कि मोहतरमा पीएचडी के सिलसिले में यहाँ तशरीफ लाई हैंहमारे मक़सद और डिपार्टमेंट दोनों एक ही बिल्डिंग में थेलुबना अंग्रेज़ी विभाग में और मै राजनीतिउसे दुमंजिले पर बने उसके विभाग में पहुंचा, मै अपने विभाग तक आया, यहाँ पीएचडी की ज़रूरी जानकारियाँ इकट्ठी कर मै वापस आयासुस्त क़दमों से राहदारी और लान पार कर एक घने बरगद के करीब से गुज़रा ही था, कि वह फिर दिखी, आराम से पालथी जमाये, नीबू का अचार चट्कारतीमै मुस्कुरा दिया
"प्लीज़ अज़ीम! कुछ खा लीजिये, मुझे खुशी होगी" उसका मिन्नत भरा लहजा मै टाल नहीं सकाआखिर अमृतसर कोई पास नहीं था कि मै कहूं कि मेरा घर पास ही है, और मुझे भूख नहीं है






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