आँखों में अब न नींद है, सोएं किधर से हम
ख्वाबों की रहगुज़र में , खोएं किधर से हम
ख़ुशियों के जो शजर थे, ख़ाली थे, बेसमर थे
इस रुत में नए आसरे , बोयें किधर से हम
टूटे हैं इस क़दर कि, खाली हैं अब तो आँखें
आंसू में तेरा दामन, भिगोएं किधर से हम
चाँद के बरक्स ख़्वाब, बढ़ते ही ढल गए
टूटी हुई आरज़ूएं , पिरोएँ किधर से हम
शब के अगर क़रीब हों, तो चाँद भी मिले
शब के मगर क़रीब होएं , किधर से हम
सिलसिलए- परिशानिये- हयात देखिये
ये सोंच मुस्कुराएं हाँ, की रोएँ किधर से हम
सहबा जाफ़री
9 टिप्पणियां:
बढिया है!
bahut badhiya...
नाज़ुक खयालातों से सजी बहुत ही उम्दा ग़जल !
टूटे हैं इस क़दर कि, खाली हैं अब तो आँखें
आंसू में तेरा दामन, भिगोएं किधर से हम
...वाह..बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...
सुन्दर रचना
किस्मत में अब दीद नहीं है आँखों में अब नींद नहीं है
कहा मनाएँ होली बोलो सपनों में अब ईद नहीं है
बहुत खूब।
ये सोच के मुस्कुराये के रोये किधर से हम
आँखों में अब न नींद है, सोएं किधर से हम
ख्वाबों की रहगुज़र में , खोएं किधर से हम
ख़ुशियों के जो शजर थे, ख़ाली थे, बेसमर थे
इस रुत में नए आसरे , बोयें किधर से हम
waah pasand aaye ye ashaar !
टूटे हैं इस क़दर कि, खाली हैं अब तो आँखें
आंसू में तेरा दामन, भिगोएं किधर से हम
.........................बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल ...वाह
sona sikh lijiye..sehat ke liye mufeed hai...
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