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गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में



कितनी मुद्द्त बाद मिले हो, वस्ल का कोई भेद तो खोलो 
कैसे  कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो 

क्या अब भी, इन रातों में ख़्वाबों के लश्कर आते हैं
क्या अब भी नींदों से नींदों पुल जैसे बन जाते हैं
क्या अब भी पुरवा कानो में गीत सुहाने गाती है 
​​क्या अब भी वह मीठी आहट, तुम्हें  उठाने आती है 

क्या अब भी छू जाती है , तुमको भरी बरसात तो  बोलो
कैसे  कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो 
  
क्या अब भी सोते में तुम बच्चों से जग जाते हो 
क्या अब भी रातों में तुम देर से घर को आते हो 
क्या अब भी करवट करवट, बिस्तर की सिलवट चुभती है 
क्या अब भी मेरी आहट पर सांस तुम्हारी रुकती है 

क्या अब भी है लब पर अटकी , कोईं  अधूरी बात तो बोलो 
कैसे  कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो 

क्या अब भी मेरी खिड़की से तेरी सुबह होती है 
क्या अब भी तेरे शीशे की धूप किसी को छूती है 
क्या अब भी होली के रंग में एक रंग मेरा होता है 
क्या अब भी यादों का सावन तेरी छत को भिगोता है 

क्या अब भी मेरे होने का,  होता है एहसास तो  बोलो
कैसे  कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो
 
   
नींद से जागे नयन तुम्हारे, क्या आज भी बहके लगते हैं 
रजनीगंधा " मेरे वाले " क्या आज भी महके लगते हैं?
मुझको छू कर आने वाली हवा तुझे महकाती  है ?   
मेरी चितवन की चंचलता, नींदें तेरी उड़ाती है ? 

अब भी जाग के तारे गिनती होती है हर रात तो बोलो !
कैसे  कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो 
                                                                         -सेहबा जाफ़री 

  
   

11 टिप्‍पणियां:

अज़ीज़ जौनपुरी ने कहा…

बहुत खूब

ये हिज्र भी क्या चीज है के सताता है रात भर
ख़्वाबों में आ के कोई रुलाता है रात भर
अज़ीज़ जौनपुरी

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

बेहतरीन, वाह

वाणी गीत ने कहा…

बहुत बढिया!!

राजीव कुमार झा ने कहा…

क्या अब भी मेरी खिड़की से तेरी सुबह होती है
क्या अब भी तेरे शीशे की धूप किसी को छूती है
क्या अब भी होली के रंग में एक रंग मेरा होता है
क्या अब भी यादों का सावन तेरी छत को भिगोता है
लाजवाब रचना.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सार्थक प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (21-02-2015) को "ब्लागर होने का प्रमाणपत्र" (चर्चा अंक-1896) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Rajesh Kumar Rai ने कहा…

खूबसूरत रचना।बहुत खूब!

dr.sunil k. "Zafar " ने कहा…

क्या अब भी मेरी खिड़की से तेरी सुबह होती है
क्या अब भी तेरे शीशे की धूप किसी को छूती है

बहुत ही अच्छा.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

वाह...लाजवाब,भावपूर्ण प्रस्तुति...
और@जा रहा है जिधर बेखबर आदमी

Zindagi Ek Safar Hai Suhaana... ने कहा…

अति सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना!

Himkar Shyam ने कहा…

ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति

संजय भास्‍कर ने कहा…

क्या अब भी होली के रंग में एक रंग मेरा होता है
क्या अब भी यादों का सावन तेरी छत को भिगोता है
...........लाजवाब रचना