खुश रहो
तुम्हारे पुकार लेने पर मेरा मुड़ कर देखना और मेरा "एक मिनट आयी !" कहने पर तुम्हारा लम्बी देर , मेरे इन्तेज़ार में रहना ! सारंग , सब कुछ वही का वही है, सब कुछ। कुछ बदल गया तो वह मेरा वक़्त और शायद थोडा सा तुम्हारा भी।
तुम बहुत उदास लग रहे थे, मुझसे थोड़े रूठे और थोड़े नाराज़ भी। फिर भी मै शर्तिया कह सकती थी, ऐसा कभी नहीं होगा कि मुझे देख कर तुम मुझे न पुकारो, जबकि मेरी हर धड़कन यह चाह रही हो कि एक बार तुम पुकार लो. शिकवे तुम्हारी आँखों में मचल रहे थे, कितने रंग आकर जा रहे थे, हर बार बस एक रट ! "क्यों क्यों!! मुझमे क्या कमी थी तुमने मुझे क्यों छोड़ा? बताओ मुझे !!!"
मै समझती उससे पहले ही मेरी आँखें जल थल, अब मै क्या कहती , तुम इतने दिन बाद मिले थे,पता नहीं लगा पा रही थी कि हममे वह रिश्ता बाकी है या नहीं जिससे में बड़े अधिकार से कहा करती थी, "बस! अब तुम हर बार की तरह मुझ ही पर डाल दो"
सारंग!
" तुमने जो कुछ किया शराफत में,
वह निदामत भी मेरे सर आयी "
सारंग ! दो रूहों का रिश्ता 'माफ़ करने का ज़र्फ़ जानता है, पर दो जिस्मों का रिश्ता……." इसमें माफ़ करदेने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए, यह वही अमल है जिसके बारे में रब ने कहा है "और अंत में वही अमल भारी होते हैं, जिनको यहाँ करने में बड़ा भार लगे"
उसके बाद, सच मानो! मै बहुत डर गयी थी और अपनी वजह से तुम्हे किसी आज़माइश में डालना नहीं चाहती थी। मेरी वापसी ही सबके लिए मुफीद थी सो सो क्या करती! मै पलट आयी। प्यार मरता नहीं और जो मर जाता है वह प्यार नहीं होता! मेरा प्यार हवाओं में बिखर कर संगीत में बदल गया जो अब तक ताज़ा है.
बेशक जब किस्मत ने हमें तुम्हे मिलाया , मै एक अधूरी इबारत थी और तुम तुम्हारी ज़िदगी के मुखड़े पर अंतरा जमाने की कोशिश में थे. मै नहीं जानती कि कितनी पंक्तियाँ थीं जो तुमने गाहे-ब -गाहे लिख कर मिटाई थीं ,(शायद वह वैसी ही एक पंक्ति थी ) तुमने किस किस पंक्ति को अपने साज़ पर संगत देने को सम पर उठाया, कितनों की सरगम में अपनी लय ढूँढने की कोशिश की मगर इतना ज़रूर जानती हूँ जब मेरी लय तुम्हारी ताल से अनजाने ही अपनी ताल मिला बैठी थी हर सुनने वाला झूम उठा था हर कोईं किसी न किसी रूप में इस सम को कायम रखने की सलाह भी दे बैठता था. मै क्या करती, बस्स ! मुस्कुरा कर रह जाती , जानती थी, जिस दिलचस्प नोवल को पढने के लोग ख्वाब देख रहें हैं, हम दोनों ने मिल कर कभी उसका प्रीफेज़ भी नहीं लिख पायेङ्गे.
सारंग! मै रुक्मणी नहीं बन सकती थी जिस्मानी रिश्तों की सरहदों के आगे मै राधा बन गयी। बेशक तुम अपनी राधा से जुड़े रहे और अपनी रुक्मणी के दर्द धोते रहे, पर क्या तुम जानते हो की तुम किसके लिए थे? राधा तो अधूरे नसीब लेकर आयी थी, पर रुक्मणी! उसे क्या मिला !!! तुमसे जुड़ कर भी वह तुम्हे पूरा कहाँ पा सकी ?
आज जब तुम मुझ से शिकवा कर रहे हो, मै भी तुमसे शिकवा करना चाहती हूँ। मुझे ज़िन्दगी के तमाम उजड़े रस्ते मुबारक, तमाम बेचैनियाँ मुबारक , तमाम गहन मुबारक !!! पर तुम अपनी रुक्मणी को खुदारा! इस रास्ते पर मत डालो कि यहाँ चलना सब के बस का रोग नहीं !
पूरे हो जाओ सारंग!
और उसे भी मुकम्मल कर दो
तुम्हारी
राधा
5 टिप्पणियां:
रुक्मणी और राधा की कहानी हर जीवन में, हर युग में आती है। बहुत गहराई से समझाया गयी कहानी।
आज के युग में भी राधा और रुक्मिणी दोनों प्रासंगिक है
hmmmm......
:)
kaisee lagee batao!
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