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मंगलवार, 9 मई 2023

 वाह रे भई ! 

 फूफी सितारा मेरे बचपन की  उन क़दीम यादों में से हैं जो अपनी चमक दमक और रोशनी से बहुत देर तक ज़हन  पर छाये रहते हैं. उनके परांदे हों या पायलें , चूड़ियाँ हो या चुटीले सब के सब जिन रंगबिरंगी आतिशी  रोशनियों से सजे रहते थे उससे वह औरत कम और झाड़ फानूस ज़्यादा नज़र आती थी. और बच्चों का क्या है ! उन्हें तो पसंद  ही ऐसी चीज़ें आती हैं.  मैं  उनकी  गोद में बैठ खुद को किसी मलिका से कम न समझती थी।  उनके दुपट्टे में जड़े सितारों से खेलते  हुए मुझे लगता था जैसे मैं जन्नत में आ गई हूँ।  दरअसल वह मेरी सगी फूफी न थीं , ताईज़ाद बहिन जिन्हें सब आपाबेगम कहते थे ,  की दूरदराज़ की ननद थीं। चूंकि आपा बेगम के  बच्चों में और मुझमे ज़्यादा अंतर नहीं था इसी वजह से जो वे सब बोला करते थे वही मैं भी बोल दिया करती थीं। फूफी सितारा बड़ी चहकी महकी घूमती थीं। 

मुझे उनकी सबसे बेहतरीन   बात यह  लगती थी कि मेरे अलावा वह किसी और बच्चे  को गोदी में नहीं  बैठाती थीं।  मेरे गोल गोल गालों और घुंघराले बालों से खेलने में उन्हें बहुत मज़ा आता था और वे और लोगों की तरह उन्हें खेंचती , तोड़ती मरोड़ती न थीं बल्कि बड़ी मोहब्बत से उन्हें सहलाती रहती थीं , गोया कि मैं कोई पालतू बिल्ली हूँ. शफ़ी भाई अटाले वाले उनके ख़ास दोस्त थे , जब भी वे बर्फ का गोला या बुढ़िया के बाल उन्हें खिलाने लाते वे उन्हें सबसे पहले अक़ीदत से मेरी नज़र करतीं , जब मेरा इंकार होता तभी वे खुद खातीं। कभी कभी हिसाब की कोई पर्ची वे मेरे हाथों शफी भाई को ज़रूर पहुंचवाती। खैर उससे क्या! बी अम्माँ कहती थी कि बड़ों के काम आना चाहिए , बड़ों के काम आने वालों से अल्लाह मियाँ खुश होते हैं. इसी से मैं उनके काम अक्सर आया करती थी.

बात करने का उनका अंदाज़ बड़ा निराला था , और क्यों न हो वे उस ज़माने में मीर तक़ी मीर के शेर पढ़ा करती थी , " इश्क़ में हमने ये कमाई की , दिल दिया , ग़म से आशनाई की। " उनका एक अंदाज़े गुफ़्तगू तो मैं आज तक नहीं भूली. वह कि हर बात के खात्मे पर उनका एक तकिया कलाम जुड़ जाया करता था वह था, " और वा रे भई !" मसलन " मैंने खाना खाया , पानी पिया , आकर बैठी , और वा रे भई!" " गुड़िया! ये चिठ्ठी उस शफीउश्शायान को दे आ , फुर्सत पा और वा रे भई !" और सब खाना खा चुके , मैं बर्तन धो लूँ और वा रे भई !!" गरज़ ये कि वह और उनका ''वा रे भई' मेरे लिए बड़े मायने रखते थे और मुझे लगता था कि वो मेरे लिए बहुत अहम् हैं. पर अहम् कहाँ ! मुन्ने मामू के इन्तिक़ाल के बाद से मुझे उनसे दूर रहने की हिदायत दी जाने लगी , बबली आपा का कहना था कि " मैंने उन्हें मुन्ने मामू के इंतेक़ाल में बड़ी गलत हालत में देखा है!! तुम उनसे दूर ही रहो !" इस स्टेटमेंट के बाद मेरा दिमाग उनसे ज़्यादा एक लफ्ज़ पर अटक गया था। मैं अंदाज़ नहीं लगा पा रही थी कि " गलत हालत " क्या होती है ? बबली आपा ने उन्हें कैसे देखा होगा? कहीं उन्हें चिकन पॉक्स तो न हो गया हो ? या कहीँ वह टी वी पर आने वाले जासूसी क़िस्सों की तरह वह बम लगाती तो बरामद नहीं हुईं ?? एक दिन मैंने बबली आपा से पूछा , " ये गलत हालात क्या होते हैं , जिसमे उन्होंने फूफी सितारा को देखा था " , जवाब में उन्होंने मेरे गाल पर एक चांटा रसीद किया। मैंने उसके बाद उनका ज़िक्र न किया , चंद एक रोज़ बाद उनका ब्याह हुआ फिर वे न जाने कहाँ गईं.

आज पूरे छब्बीस साल बाद , साढ़े चार साल की वे नन्ही यादें  आकर ताज़ा हुईं जब मेरी दूर दराज़ की बहिन के निकाह में फूफी सितारा मिलीं! जाने मोहब्बत का कौन सा नाता था, यों पहचान गईं जैसे अभी अभी अलग हुए हों. कुछ नहीं बदला था,फूफी ज़रा बूढी  लग रहीं थीं , मगर रख रखाव का क्या कहना!  खंडहर बता रहे थे ,  इमारत बुलंद थी.   बहरहाल! इधर उधर की बातों के बाद,  क़िस्से और वाक़ये  निकलने लगे ," क्या कर रही हो आजकल?" उन्होंने बड़ी मोहब्बत से सवाल किया।  " मैं !!!! आजकल मैं इश्क़ के क़िस्से लिखती हूँ " मैंने राज़दाराना  लहजे में धीमे से फुसफुसाया , " गोया इश्क़ न हो किसी को मार डालने की साज़िश हो ". फूफी की आँखों में एक चमक आकर ढल गयी.  " गाँव जाती हो ? " उन्होंने आहिस्ते से पूछा " शफी दिखते हैं "  जी ! मैंने धड़कते दिल से वह वाक़या याद किया जिसमे लफ्ज़ " ग़लत हालत " शामिल थे, और जिन्होंने मुझे एक अरसा बहुत  परीशान किया था। चलते वक़्त उन्होंने मेरा कॉन्टेक्ट नंबर लिया और वादा किया कि फोन ज़रूर लगाएंगी. 

इस तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में कौन किसे याद रखता है!  सबको भागने की जल्दी है पर पहुँचना कहीं नहीं है! मैं बड़बड़ा रही थी कि अचानक फोन बजा , " ऐ गुडिया ! वक़्त है , बात करोगी ? "  उधर से फूफी सितारा की तक़ाज़े करती आवाज़ सुन मेरा दिल फिर धड़क गया , लफ्ज़ " गलत हालात " मेरे ज़हन में फिर से धौंकनियाँ पीटने लगा।  " वो तू क्या कह रही थी उस दिन ! कि  आजकल तू इश्क़िया क़िस्से लिक्खे है  देख बन्नो! तू बचपन से मेरी ग़म गुसार रही है।  मेरी ख़ास !! मेरा भी एक क़िस्सा है , लिखेगी ? " अंधा क्या चाहे , दो आँखे!!  हाई फूफी सितारा !!! जी में आया गले लग जाऊं उनके पर कम्बख्त " ग़लत हालात " का  तक़ाज़ा था , दिल थाम कर रह गयी। एक हसरत सी रह गयी थी ,  साढ़े अट्ठारह में तो इनका निकाह हो गया था , फिर कब इश्क़ फरमा लिया इन्होने !!!  " जी कहें !"  मैंने बड़े एहतराम से कहा।  

" शफ़ी ! का बाड़ा और हमारा बाड़ा आमने सामने था. कभी हमारी मुर्ग़ी उधर अंडे दे देती तो कभी  उनके  चूज़े  उड़ उड़ के हमारे बाड़े में। !  एक रोज़ मुर्ग़ियां पकड़ते पकड़ते टकरा गए दोनों , बड़ी ज़ोर का सिर फूटा , उधर उनके अब्बू ने आवाज़ लगाई , " शफ़ी ! किधर मर गए , दूकान नहीं चलना क्या !!!"  शफ़ी मुझे घूर रहे थे,  " आता हूँ अब्बू !  मेरी वजह से ज़रा , सितारा का सिर फूट गया है !!!" वह मुझे घूरते घूरते ही चिल्लाये।  " अरे तो कफ्फ़ारे में उससे निकाह कर के ही आएगा क्या ! " उनके अब्बू चिल्लाये तो मैं शरमा कर अपने घर भागी , वे अपने घर. उस दिन के बाद से जैसे कुछ होने लगा। गुलाब का फूल और बेले के गजरे से होते हुए बात कब मलाई के दोने तक आ गई खुदा जाने ! दिन सरकते गए।  मुए, मरजाने फोन तो थे नहीं ! ले दे के वही हिसाब का काग़ज़  और वा रे भई! अरे वही ! जो तुम्हारे हाथ से मैं शफी को भिजवाया करती थी. उन्ही में दिल की गुज़री लिख देते थे.  फिर मुन्ने मियाँ के इन्तेक़ाल से बात जो फिरी के वा रे भई! अरे वही मुन्ने मियाँ ! जो एक सौ बीस साल की उम्र में  भी दुनिया छोड़ने को तैयार न थे !  उनके इंतेक़ाल को बच्चे तो जैसे कुछ समझ ही नहीं रहे थे। अपनी मस्ती में मस्त. उधर मैं पिछवाड़े वाली कोठरी में पालक साफ़ कर पकाने की सुध ले रही थी कि  मय्यत के बाद चूल्हे पर हांडी न चढ़ सकेगी , उधर वे मय्यत को नहलाने को कपूर लेने पिछवाड़े वाली कोठरी में आये , हमने तन्हाई पाई तो ज़रा देर को हिलमिल लिए।  ज़रा नज़दीक क्या आये ,   बबली , बिट्टन , गुड्डू , अच्छू  समेत सब के सब बच्चों की फ़ौज  लुका छिपी करती कोठरी में आ गयी।  हम अलग हों तो कैसे , मेरे गले का तीन लड़ा हार इनके क़मीज़ के बटनों में ऐसा अटका कि वा रे भई! लिहाज़ा ! भांडा फूटा , कुटाई हुई और मैं आनन् फ़ानन   में खुद से बारह साल बड़े सज्जाद मियाँ टाल वालों से ब्याह दी गई. रज्जो, छुट्टन, और पिंकी तो खैर से हो गईं पर रानी ! जैसे ही लड़का हुआ , मैंने सास के पैरों में पड़ उसका नाम शफी रखवा लिया. "  चल गुड्डो ! तू क़िस्सा लिख मैं शाम का खाना देखूं! और वा रे भई !!! 

वह पहला इश्क़ था , वह भूल नहीं पाई और जी भी ली।  इस बार मैं सोंच रही थी , " वा रे भई !"  


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