" अल्लाहो बाक़ी!" न ना !! ये उसका वहम नहीं था , देख ही तो रहा था वह !!! नाज़िश बेबाकी से उसके यों घूरने को बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी, एक सवा घंटा तो हो ही गया था उसे यूं घूरते घूरते! कभी दरवाज़े डेवढ़ी की ओंट से देखे , तो कभी थम्बेली-चम्बेली की ओंट से. कभी आते जाते दबी दबी मुस्कराहट तो कभी खुल खुल के देखे। कभी होंटो को दाँतो से दबाये तो कभी मुस्कराहट छुपाने की कोशिश। उसका यूं अजीब अजीब नज़रों से देखना, ख़ुद नाज़िश को अजीब से एहसासों से भर रहा था, बार बार पर्स में रखे आईने को हीले बहाने से तांक वह ख़ुद पर रश्क़ कर रही थी एक तो मुई उमर सोलह , तिस पर फ़ीचर भी क़यामत ही दियें हैं अल्लाह ने !पर मैं इतनी खूबसूरत हूँ मुझे पता नहीं था दिल ही दिल में उसे खुद पर नाज़ हो रहा था.
"अफ़ज़ाल हसन " उस लड़की का भाई जिसे वह अपनी भाभी बनाने के सिलसिले में देखने आयी थी लन्दन पलट था, बेहद हसीन -जमील और लेडी -किलर टाइप का. उसका इस तरह मुस्कुरा कर देखना किसी भी लड़की को पागल बना सकता था , फिर नाज़िश तो एक बेहद ख़ुश -फ़हम लड़की थी। दिल ही दिल में उसका बावला हो जाना लाज़िमी भी था, एक तो उम्र सोलह तिस पर ख़्वाबों के ख़रगोश ! "लिल्लाह!! ये क्या चाहता है " अपना आप छुप छुप के दरपन में देखती "वह " बिना बात लाल हुए जा रही थी , " शायद मेरी आँखों पर मर रहा हो " उसने मुस्कुरा के पर्स खोला और खुद को शीशे में देखा, वाक़ई हैं भी मर मिटने लायक ! अपनी नरगिसी आँखों और मुड़ी मुड़ी पलकों पर निहाल हो गयी वह।
"अरशी हसन " वह लड़की जिसे वह अपनी भाभी बनाने को देखने आयी थी, एक सादा सी शख्सियत की घरेलू लड़की थी. अल्लाह मियाँ से अपना जोड़ा माँगते माँगते उम्र के अट्ठाईसवें में दस्तक देती न जाने कितनी दफ़े मेहमानो के आगे नाश्ते की प्लेटें सजा -उठा चुकी थी। पढ़ी लिखी बेहद सलीक़े मन्द और ख़ुश-अखलाक़। अपने भाई के बरक्स थोड़ी गन्दुमी। उसकी सँवलाहट उसके भाई की झल मारती ख़ूबसूरती के आगे अक्सर हैरतज़दा सवाल खड़े कर देती थी और लोग उसकी अम्मी से यहाँ तक पूछ बैठते थे , " आपकी बिटिया अस्पताल में बदल तो नहीं गयी कहीं!" "जी! आप पानी लेंगीं ?" अफ़ज़ाल हसन ने अपनी शरारती आँखों को सीरियस बनाने की कोशिश कर नाज़िश के हाथ में ग्लास थमाया , "अल्लाह ! ये कमबख्त तो मर ही मिटा है दिखे मुझ पर" नाज़िश ने फिर गुलाबी होकर पर्स में रखा शीशा देखा और एक हाथ से ग्लास थाम लिया।
बड़े बुज़ुर्ग खानदान का जायज़ा ले रहे थे, औरतें और अम्मा लड़की के नोंक-पलक पर जमे हुए थे और नाज़िश ! इन सब से बेख़बर चोरी चोरी अफ़ज़ाल को देख रही थी, अल्लाह ! कहीं ये लड़का जो मुझ पर सच में मर मिटा तो! इस ख़याल से ही उसका जिस्म अजीब से जज़्बों से भर गया. तब तो ये मेरे लिए " वो " होंगे ! लाल लाल हो उसने दिल ही दिल में सोंचा। "आप तो बोर हो रही होंगी लाइए में टीवी ऑन कर देता हूँ , आप इस तरफ आ जाइए " वह उठ कर एक दो क़दम ही चली होगी की अफ़ज़ाल फिर उसे देख मुस्कुराने लगे , " ओह्ह! कहीं मेरी पतली कमर का बल खाना , तो नहीं पसंद आ गया इसे !" नाज़िश दिल ही दिल में लजा रही थी, " न न!! मेरी चाल ही पसंद आयी होगी" अल्लाह तूने मुझे इतना खूबसूरत क्यों बना दिया, जैसे ही दीवार पर लगे शीशे में उसने अपना आप निहारा , पीछे अफ़ज़ाल का मुस्कुराता चेहरा नज़र आने लगा , " अल्लाह! इतना मुस्कुरा रहा है , मुझे लगे भैया का हो न हो, मेरा हाथ ज़रूर अम्मी से मांग ही लेगा यह!" इतना सोंचना था कि दिल बेसाख्ता धक धक करने लगा " कितनी बद्तमीज़ हूँ मैं ! यह तो मुझे अपने साथ लन्दन ले जाने की सोंच रहा है और मैं !! मुझे "इसे " इसे नहीं, "इन्हें " कहना चाहिए" " जब से तुम जवान हो गए / शहर भर की जान हो गए " टीवी पर गाना आ रहा था। " ये ठीक रहेगा " अफ़ज़ाल मुस्कुरा कर बोला " अल्लाह मियाँ !!! दिल की बातें ग़ज़लों में कह रहें हैं" अबकी बार तो दुपट्टा अँगुलियों में लपेट ही बैठी नाज़िश।
"पता नहीं शायद मेरी आवाज़, या फिर मेरे सलाम करने का अंदाज़ या कौन जाने मेरे हौले से हिलना, या फिर शरमा के बैठना....क्या पसंद आया होगा इन्हें …हम तो हैं ही प्यारे" वह एकदम से ही " मैं " से "हम" हो गयी थी। अल्लाह ! उसने शरमा के हौले से अफ़ज़ाल पर निगाह डाली, अफ़ज़ाल उसके घुटनो की तरफ देख मुस्कुरा रहा था , "लिल्लाह! हमें लगे सोंच रहे होंगे कि हमें शादी के बाद कहाँ रखेंगे " माथे पर पसीने की बूंदे पोंछ वह अपनी सोंच से पल्ला छुड़ाने लगी.
"कौन जाने! मेरे दाहिने टख़ने पर मौजूद तिल पर ही दिल आ गया हो " छुड़ाते छुड़ाते भी एक ख़याल चिपक ही गया. उफ़्फ़ ! ये बेहया ख़याल !
दो मिनट को सबको अकेला छोड़ सारे लड़की वाले हीले- बहाने बाहर हो गए. " कैसी है " अम्मा ने दादी- अम्मी की तरफ सवालिया निगाहें फेंकी। " सब माफ़िक का है, बस ज़रा सांवली है !" दादी ने आहिस्ते से कहा। और इन सबसे बेखबर नाज़िश सोंच रही थी , अम्मी उसके और अफ़ज़ाल के निकाह की दावत शहर के सबसे महंगे होटल में ही देंगी। हनीमून के लिए अफ़ज़ाल ज़रूर मॉरीशस ही पसंद करेंगे और जी ! बच्चों के नाम तो उनके अब्बू की तर्ज़ पर हिलाल और बिलाल ही रखे जायेंगे।
" कहाँ गुम हो !" अम्मा ने नाज़िश के कोहनी मारी तो वह एकदम अपने ख़याली ससुराल से मैके में आन गिरी। " क्या है !" बुरा सा मुँह बना उसने अम्मा को तका। उसे अम्मा का यूं कोहनी मारना ज़रा न सुहाया। " हम कहें कैसी है ?" "हम्म ! " उसने एक मुतमईन सी सांस ली. " सांवली नहीं लगी ??" अम्मा ने सवाल उठाया। " " लगी क्या! अच्छी खासी सांवली है बीवी!" दादी अम्मी ने जवाब लपका और दोनों ही नाज़िश की तरफ देखने लगीं।
" सांवली ! मतलब ना!," "ना मतलब दुबारा कभी अफ़ज़ाल को न देख पाना !!!" अल्लाह , लन्दन , मॉरीशस, रिसेप्शन , हिलाल बिलाल एक ही झटके में पूरी दुनिया ख़त्म थी , बी नाज़िश की ! " क्या कर रही हो अम्मी! दो ही रंग बनाये हैं अल्लाह ने गोरा या काला, इनका एजुकेशन देखिये, सलीक़ा देखिए, खानदान देखिए, घर देखिए, सफाई देखिये, अख़लाक़ देखिये !! आप भी ! कोई रंग देखता होगा आजकल, सबसे बढ़ कर बहुत ही प्यारी लड़की लगी मुझे यह , हम कहें आप तो बस्स !! " हाँ " कह दीजिये " जोश जोश में तक़रीर कर डाली नाज़िश ने.
हर बार लड़की की रंगत पर बाज़ी पलटती नाज़िश को क्या हो गया , अम्मी की अक़्ल हैरत में थी।
"जी ! माशा अल्लाह से , हमें तो पसंद आ गयी है, बाक़ी और बुज़ुर्गों से मश्विरा कर के जवाब देते हैं !" दादी अम्मी ने लड़की वालों का दिल रखते हुए इजाज़त ली। सब उन्हें बाहर तक छोड़ने आये और गुलाब की महकती झाड़ियों की औंट में बुला अफ़ज़ाल ने सबकी नज़रें बचा धीरे से नाज़िश के हाथों में एक चिट्ठी थमा दी। जिसे बेहद शर्माते हुए लेकर नाज़िश ने पर्स में डाल लिया ! "लिल्लाह ! कर ही दिया प्रपोज़ !! मुझे तो पहले ही पता था, और कमी भी तो कुछ नहीं मुझ में ! बाक़ी तो सब ठीक है , आख़िरी की तक़रीर ने तो जान ही डाल दी होगी बन्दे में! अल्लाह ! इस ख़त को तो जाते ही कलाम-ए -पाक में रख छोडूंगी, आख़िर होने वाले बच्चों के अब्बू का पहला ख़त है " ऐसे ही ख्यालों में गुम कार घर तक कब आन खड़ी हुई खबर तक न हुई। "अरे भाई ! चाबी किसके पास है ?" बंगले के पास पहुँच दादी अम्मी भीतर दाखिल होने की जल्दी सी मचाई , नाज़िश को याद आया , जल्दबाज़ी में उसने अपने शलवार के नाड़े से उसे बाँध लिया था . फ़ौरन नाड़े से चाबी अलग कर उसने दादी अम्मी को थमाई। भट -भट्ट करती तेज़ क़दमों से दादी जान के पीछे पीछे। कमरे की तन्हाई में जिगर थाम के चिट्ठी खोली तो एक सांस में ही पढ़ , सर पकड़ रह गयी। उसमे लिखा था : " बी! आप जो भी हैं ,माफी चाहूंगा , गैर इरादी तौर पर नज़र चली गयी , शार्ट कुर्ती से झााँकती आपकी नाड़ी और उसमे लटकी बाबा आदम के ज़माने की चाबी आपको खासा मज़ाक का मौज़ू बना रहे हैं , कोई और हँसे इससे पहले , रब के लिए उसे अंदर कर लीजिये "
बेचारी नाज़िश ! अपने तसव्वुरात के बच्चों समेत , घड़ों पड़ते पानी में गोते लगा ग़ुस्से ग़ुस्से में चीख़ रही थी " अम्मा ! लड़की वालों के घर इत्तिला कर दें , बुज़ुर्गों ने " ना " कह दी है!"
14 टिप्पणियां:
बहुत ही दिलचस्प कहानी ! खूब समां बाँधा आपने ! मज़ा आ गया !
हा हा... मुँगेरी लाल के सपने को मात कर दिया आपने अपनी इस कहानी से
वाह..बहुत रोचक कहानी..कमाल का अंत है कहानी का...
वाह, क्या लिखाई है। क्या अंदाज हैं। बहुत खूब!
माशाअल्लाह.... क्या मैं इस लड़की की कलम चूम सकती हूं? हाय मेरी इस्मत चुगताई .. मैं वारी जावां...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, कदुआ की सब्जी - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
Shandar.....umda lekhan ka behtarin namuna.
जानदार :)
बढ़िया :)
कमाल की शैली में लिखी गज़ब पोस्ट है ...
एक जरा सी बात और ना ...
बहुत बढ़िया ..
Loved reading it !! :)
Bahut Khoob
क्या अंदाज हैं।
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