जगह जगह परछांई सी है
अपने घर अँगनाई सी है
न होने के बाद भी अपने
पूरे घर पर छाई सी
है
हल्दी-मिर्ची , तेल -शकर सी,
गंध में महके पूजा घर सी
पिछवाड़े से अगवाड़े तक
पूरी बसी- बसाई सी है
अजवाईन , तुलसी, पौदीना
उसका आँचल झीना झीना
भौर के राग में चिड़ियों के सुर
वह घुलती शहनाई सी है
ठंडी रातें बिना
अलाव
मन पर लगते घाव- घाव
रूठ के सोयी नींद के ऊपर
पड़ती गरम रज़ाई सी है
भण्डारे के
अंधियारे से
दालानों के उजियारे तक
ग़ौर से देखो गयी नहीं वह
हर बच्चे में समाई
हुई है
- लोरी
5 टिप्पणियां:
सुंदर पंक्तियाँ....
जगह जगह परछांई सी है
अपने घर अँगनाई सी है
न होने के बाद भी अपने
पूरे घर पर छाई सी है
बहुत बहुत ही ultimate... लब्ज़ों पर आपकी commnd भी गज़ब हैं.
बहुत खूब।
आभार.... पहली बार आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा ......बहुत सुन्दर रचनायें!
आभार.... पहली बार आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा ......बहुत सुन्दर रचनायें!
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