मैं तो वही हूँ
जिसको तुम दीवार में चुन कर
मिस्ले सबा बेख़ौफ़ हुए
ये नहीं जाना
पत्थर से आवाज़ कभी भी दब नहीं सकती
मैं तो वही हूँ
रस्म व रिवाज़ के बोझ तले
जिसे तुमने छुपाया
ये नहीं जाना
रोशनी घोर अंधेरों से
कभी डर नहीं सकती
मैं तो वही हूँ
गोद से जिसकी फूल चुने
अंगारे और कांटे डाले
ये नहीं जाना
ज़ंजीरों से फूल की
ख़ुश्बू छुप नहीं सकती
मैं तो वही हूँ
मेरी हया के नाम पर तुमने
मुझको खरीदा, मुझको बेचा
ये नहीं जाना
कच्चे घड़े पे तैर के
सोहनी मर नहीं सकती
मैं तो वही हूँ जिसको तुमने डोली बैठा के
अपने सर से बोझ उतारा
ये नहीं जाना
ज़हन ग़ुलाम अगर है
क़ौम उभर नहीं सकती
पहले तुमने मेरी शर्म-ओ-हया पे
खूब तिजारत की थी
मेरी ममता , मेरी वफ़ा के नाम पे'
खूब तिजारत की थी
अब गोदों और ज़ेहनों में
फूलों के खिलने का मौसम है
पोस्टरों पर नीम -बरहना
मौज़े बेचती , जूते बेचती औरत मेरा नाम नहीं
किश्वर नाहिद
6 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-05-2015) को "गूगल ब्लॉगर में आयी समस्या लाखों ब्लॉग ख़तरे में" {चर्चा अंक - 1969} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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बहुत सुंदर
गहन अर्थ सहेजती रचना
सुंदर रचना, प्रशंसा योग्य
ऐसी रचनाओ को आप शब्दनगरी मंच पर भी अवश्य प्रकाशित करे
www.shabdanagari.in
खुबसूरत अभिवयक्ति.....
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