आज़ादी की कीमत उन चिड़ियों से पूछो
जिनके पंखो को कतरा है, आ'म रिवाज़ों ने
आज़ादी की कीमत, उन लफ़्ज़ों से पूछो
जो ज़ब्तशुदा साबित हैं सब आवाज़ों में
आज़ादी की क़ीमत, उन ज़हनो से पूछो
जिनको कुचला मसला है, महज़ गुलामी को
आज़ादी की क़ीमत , उस धड़कन से पूछो
जिसको ज़िंदा छोड़ा है, सिर्फ सलामी को
आज़ादी की क़ीमत उन हाथों से पूछो
जिनको मोहलत नहीं मिली है अपने कारों की
आज़ादी की क़ीमत उन आँखों से पूछो
जिनको हाथ नहीं आयी है, रौशनी तारों की
जो ज़िंदा होकर भी भेड़ों सी हांकी जाती है
आज़ादी भी रस्सी बाँध के जिनको दी जाती है
जिस्मों से तो बहुत बड़ी जो मन से बच्ची हैं
अब्बू खां की बकरी भी उन से अच्छी है
-सहबा जाफ़री
6 टिप्पणियां:
सबसे पहला सबसे बेहतर ! फीलिंग्स वाईज मुकम्मल सहमति ! पर एक शिकवा ये कि आधी आबादी की आज़ादी 'बाहर से कोई' क्योंकर लायेगा , अगर वो खुद अपने वज़ूद के लिये अपनी मुट्ठियाँ नहीं तान लेतीं ! आम रिवाज़ आसमान से नहीं उतरे कि उन्हें तोड़ा ना जा सके !
बिलकुल सही कहा.... मगर अंडे के आवरण को तोड़ने के लिए कोशिश अंदर से ही हो तभी नया जीवन जन्म लेता है...
0_o
झाक्झोड दिया इन पंक्तियाँ ने ... सच कहा है ...
वाह वाह बहुत ही खूबसूरत |
भीतर तक उतरती पंक्तियाँ ...... बहुत उम्दा
एक टिप्पणी भेजें