गुलों में रंग भरे, बाद -ए -नौ बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है यारों ,सबा से कुछ न कहो
कहीं तो बहर -ए -ख़ुदा , आज ज़िक्र -ए -यार चले
कभी तो सुबह तेरे कुञ्ज-ए -लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सरे काकुल से मुश्क़ -बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता ,ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे' आएँगे ग़म -गुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब् -ए- हिज्राँ
हमारे अश्क़ तेरी आक़बत सँवार चले
मक़ाम फैज़ कोईं राह में जँचा ही नहीं
जो कू -इ -यार से निकले तो ,सू -ए -दार चले
- फैज़ अहमद फैज़
3 टिप्पणियां:
बहुत कोशिश की पर कुछ लिखते नहीं बना ! उन दिनों में जाकर वापस लौटना मुश्किल होता है जबकि आपने इसे पहले पहल सुना या पढ़ा होगा !
शायद,
शायद आज तक की हुई आपकी सारी टिप्पणियों में से यह सबसे ख़ूबसूरत
टिप्पणी है…। जब कुछ कहते न बने, हँ , वाक़ई भुलाए नहीं भूलते वह दिन,
रात के बारह , बास्केट बाल परिसर, इन्दौर में मुशायरा, सन २०१० की एक ठंडी शाम.
पूरे चाँद की चांदनी और अधूरी हसरतों के कलाम। तारीखों के जंगल में वह दिन पता नहीं कहाँ
भटक गए अली जी! बस्स !!! निशान बाक़ी हैं.……
sach hai, "gulo me rng bhare bad-e nau-bahaar chale..." mujhe wah din yaad aate hain, bhopal k bade talab k aas pas baith kar pahli baar tumhare mobile me , tumhari bhabi aur maine ise pahle pahal suna tha....tumhe yad hain wah din....
"The days were too short......!"
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