अल्लाह ने एक दिन मेरी सुन ली मुझे मेरे जैसा, अपने उम्र से पांच एक साल छोटा, एक "इन्टर नेट भाई " मिला, मेसेज से आगे निकले, खैर- ओ - खैरियत पर आए, सुख- दुख, स्कूल , कोलेज, बाजार, बगीचे, किताबे, गीतों, गज़लों और नज्मो की पगडण्डीसे होते हुए कब् जिन्दगी की फिलोसफी पर आ गए, मालूम ही नही हुआ.
कल तक जो मेरी बीमारी की वजह से दुखी थी, आज मेरे एक प्यारे से भाई को देख कर बड़ी मोहब्बत से कहतीं : "मै तो समझती थी, अब तुम्हे मै कभी छोटा भाई नहीं दे पाउंगी! सच है भाई, अल्लाह जिसे चाहे जो अता फरमाए!!!
अपनी ज़िंदगी की जंग में, बेहद तन्हाँ "मुझ" को अचानक ही, अम्मी अब्बू के घर गुज़ारे बचपन के वह दिन याद आ जाते जब, हम सब भाई-बहनों का कमरा साझा हुआ करता था, सबके पलंगो के बीच सरहद का काम करती उस टेबल की याद आते ही मुझे लगता, इसके एक ओर के पलंग पर मै हूँ और दूसरे बाजू शैमी (यों नाम तो उसका एहतेशाम है, पर मैंने उसे "शैमी" कर दिया है ), हम दूर नहीं हैं, मानो एक ही कमरे में बैठे , एक माँ जाये दो सग्गो से भी सग्गे भाई बहन!
अब वह आम भाई बहनों के जैसे मुझ से लड़ने और लाड भी लड़ाने लगा था, मसलन कभी कहता, "यार अप्पी! कित्ती मुटल्ली हो गयी हो आप!" या फिर "सच्ची अप्पी! काले कपड़ों में तो भूत ही नज़र आती हो आप!" मुझे भी आम बहनों की तरह उसकी फिक्र होने लगी थी; मुक़र्रर वक़्त पर, उसके आन-लाइन न होने से, मै घबरा जाती! बिलकुल ऐसे ही उसकी राह देखती जैसे कोई बड़ी-बहिन, रात को देर से घर आने वाले भाई के लिए, दहलीज़ पर फिक्रमंद खड़ी हो; उसके लिए दुआएं करते मेरे लबो पर बरबस ही थिरक उठता," ऐ अल्लाह! इसको इम्तेहानो में कामयाब कर "
कभी हमें एक दूसरे को देखने की ख्वाहिश नहीं हुई, पर ऐसा भी नहीं लगा कि हम निरे अजनबी है, एसा लगता था, जैसे एक-दूसरे को इतना नज़दीक से जानते हैं कि बिना कहे सुने सब देख लेते हैं, मुझे लगता जैसे एक ही किचन में, बड़े से उस पटले पर बैठ हमने साथ साथ खाना खाया हो , जिस पर अम्मी छुटपन में मुझे और चार साल बड़े भाई को साथ साथ खिलाती थीं, अक्सर काम पर जाने की जल्दी में, रोटी के नन्हे-नन्हे टुकड़े कर, उसे सालन में डुबो कर निवाले बना रख दिए जाते थे, जो अम्मी की मजबूरी समझ हम बेमन से निगल लिया करते थे, और लगता है, जब मै, अम्मी की कमी को शिद्दत से महसूस कर अह्सासे-तौहीन से रो पड़ती थी, तो जो नन्हे- नन्हे हाथ मेरे आसूं पोछा करते थे, शायद वो भी तुम्हारे ही थे.
अब मै धीरे धीरे अच्छी होने लगी थी, बिस्तर से मेरा राबता और फुर्सत में गपियाने के मेरे पल भी कम होने लगे थे, ऑफिस भी पार्ट- टाइम ज्वाइन कर लिया था, शैमी भी गले-गले वकालत की पढाई में डूब गया था, साथ धीरे धीरे कम होता जा रहा था एक रिश्ता था जो किसी बंधन में न जुड़ कर भी एक प्यारे बंधन में दिन पर दिन गुन्थता जा रहा था. एक ऐसा रिश्ता जो, निह्स्स्वार्थ भाव से बंधा बस किसी अनदेखे "उस" के सुख, "उस" की शान्ति और "उस" की खुशी के लिए था, वही, सच मानो तो, मेरे उन अकेले, और अधूरे दिनों की ताक़त था.
.जानती हूँ शैमी! वक्क्त के जिस बहाव ने हमें मिलाया, एक दिन वह हमें अलग भी कर देगा. पर मेरे नन्हे अजनबी दोस्त!!! तुम्हारी इस मदद को ज़िंदगी में कभी नहीं फरामोश कर सकूंगी मै! सच मानो!! तुम्हारी कामयाबी और कामरानी के लिए, हवा में मेरी सब अंगुलियाँ, शादाबियाँ लिखती रहेंगी......दुआओं के ज़रिये....
तुम्हारी अप्पी
लोरी.