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गुरुवार, 28 जुलाई 2022

        रहने दो , छोडो भी , जाने दो यार 

" यह हमारी ज़िन्दगी के साझे एक साल के लिए. " नितिन उठे और एक सुंदर गुलाब की हल्की गुलाबी कली उसकी तरफ बढ़ाई।  उसके दाहिने हाथ में पर्स और बाएं हाथ में टिफ़िन बैग था।  उसने मुस्कुरा कर अपना सिर उसके सामने कर दिया।  नितिन मुस्काये और ताज़ा फूल सारा के बालों में अटका दिया और सारा लम्बे लम्बे डग भरती ऑफिस के लिए निकल ली। ऑटो रिक्शॉ मिलते ही वह थक कर ऐसे सुस्ताई जैसे मैराथन जीत ली.  पंच कॉर्ड की याद आते ही उसका दिल धड़कने लगा. " हे राम !कहीं  ऐसा न  हो कि घर पर छूट गया हो !"  उसने धड़कते दिल से पर्स में हाथ डाला, एक नीले स्कार्फ में अटका हाथ जैसे यादों में ही अटक कर रह गया।  " तुम्हे पता है  आज हमने इक्कीस २१ जून  पूरी की हैं वह भी बिल्कुल साथ साथ. " साथ साथ  का यह साथ तुम्हारे सिर पर नीले अम्बर सा छा जाए , इसी लिए यह नीला स्कार्फ! "  अभि की साझी सरगोशी सारा को कुछ ऐसे भिगो गयी मानो  कल ही की बात हो।  उँह!  मोहब्बत कुछ नहीं होती , रिश्ते ज़रूरतों पर टिके होते हैंऔर एक दिन जब आपकी ज़रूरत नहीं रहती , किसी को आपसे  मुहब्बत नहीं रहती।  उसने सिर झटका और अपनी सोंच परे फेंकी. फेंकते फेंकते भी  जैसे एक ख्याल  चिपक ही गया।   उसकी चिपचिपाहट से आखें जैसे जलने लगीं और उनमे से गर्म गर्म पानी सा आता महसूस होने लगा. ये स्कार्फ  उसके साथ हमेशा रहता था , जब कुछ नहीं था  तो क्यों रहता था ? 

    समीक्षा , अभिषेक ,  सारा और नितिन बचपन से  दूसरे के साथी थे. जिस फैक्टरी में अभिषेक और समीक्षा के पिता क्रमशः मैनेजर और जी. एम. थे सारा और नितिन के पिता उसी कंपनी के द्वितीय श्रेणी कर्मचारी। यह वह दौर नहीं था जबकि पब्लिक स्कूलों, या अंग्रेज़ी स्कूलों की भरमार थी।  केंद्र सरकार का उपक्रम होने से इस फैक्ट्री के स्कूल में कर्मचारियों के बच्चों  की  शिक्षा का निशुल्क प्रबंधन था इसी से सब साझे पढ़े थे. सारा और अभिषेक की माताओं को पति के स्टेटस की खातिर अपनी फिगर, किटी पार्टी के मैन्यू सी ही मैंटेन करनी होती थी, इसी से घर नौकरों के हवाले था और बच्चे नैनी के। किन्तु समीक्षा और नितिन मध्यम वर्गीय परिवारों के वे बच्चे थे जिनमे घर छोटा होने से, बच्चों के साँसों की रफ़्तार भी मातापिता तक स्वयं पहुँच जाया करती थी. वे बच्चों  जो प्रेम की ऊष्मा और आत्मीयता की लौ से ऊर्जा लेते हैं  प्राय:     



रविवार, 6 फ़रवरी 2022

रहे न रहें हम...... Webdunia se sabhar .....

सन्डे की सुबह , लम्बी  कोरोना  पॉज़ी टिव रह कर हालिया नेगेटिव हुई.   घर सर  र  ही आ रहा था. कहाँ से क्या शुरू करूँ की जद्दोजहद से  हले लता जी का एकाध गीत  सुन लिया जाए , दिन भर के लिए कामों की प्लानिंग आसान  हो जायेगी! खुद ब खुद जैसे मोबाइल पर प्ले हुआ, " चिट्ठिये दर्द फ़िराक़ वालिये/ लेजा लेजा संदेसा सोणी यार दा...." मन मनिहारा हुआ अपनी ही चूड़ियों में खोया था कि खबर आई आज मौसीक़ी के हाथों की चूड़ियाँ चटक गईं.... ब्रीच कैंडी अस्पताल में लता जी का पार्थिव शरीर अपनी आभा  ऐसे बिखेर रहा है मानो स्वर्ग की वस्तु स्वर्गीय होने जा रही है थोड़ा समय और निहार लो...  लिखने वाले ने लिख डाले मिलन के साथ बिछौड़े।

मेरा मन पीछे भागने लगा,  मैं  खुद को फिलिप्स का अपना रेडियो सेट बाहों में भरे  फर्स्ट ईयर की अभी अभी जवान हुई लड़की सा महसूस करने लगी , कानों में उनका गाया वह गीत गूंजने लगा  जो मैंने पहले पहल सु ना था , " तेरे बिना ज़ि न्दगी से कोई शिकवा तो नही...." और लगा बड़े मौसा जी पीछे से आ कर कह रहे हों, आवाज़ बढ़ा दे ज़रा ! लता दीदी का गाना है। .."  फिर से विविध भारती सुनने वाली दोपहरी समाअत के दालानों में अपने होने  का एहसास कराने लगीं...    गुड्डी चाची! आवाज़ बढ़ा दो ज़रा!  अकेले अकेले मत सुनो।  ज़िंदगी और कुछ भी नहीं , तेरी मेरी कहानी हैं....., नाहिदा बाजी! अंताक्षरी में  " भ " से क्या गाओगी?  " भँवरे ने खिलाया फूल , फूल को ले गया राजकुमार"! कहाँ हर घर  मुहैया था रेडियों , एक चला दे तो पूरा टोला , पूरा मोहल्ला और पूरी चॉल  सुन लेती थी कि लता दीदी गए रही हैं  ले 

उन दिनों दोपहरी लम्बी लगती थी, मोहल्ले टोले की औरतें आँगन लीपते, गेहूं चुनते और दीवाली की सफाई करते लता दीदी के गाने गुनगुनाया करतीं ," सात समुन्दर पार से, गुड़ियों के बाज़ार से... , तुम मुझे यूं भुला न पाओगे..... , अजीब दांस्ता है ये.., ज्योति कलश छलके... और मेरी माँ का सदा सर्वदा का पसंदीदा , " नैनों में बदरा छाये... विविध भारती को तो पहचान ही लता जी की आवाज़ से मिली थी , और जब फरमाइशी गीतों वाले खत में रेडियों आर्टिस्ट लता जी के गाने सुनाने की फरमाइश के साथ हमारा नाम क्या पढ़ती लगता था , लता जी हमारे बिलकुल करीब हैं , साथ साथ ! कौन ऐसी गायिका होगी जिसके स्वर को पीडियों का प्यार मिला है , मुझे दादी के व्यथित स्वर सुनाई देते हैं मानो मनुहार करते कह रहे हों, " दो हंसों का जोड़ा बिछुड़ गया रे.... सुनवा दे  रेडियो पर.... थोड़ा जी लगे.....|  

यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर मिलते  गोपाल भइया  अपनी प्रेमिका को अपनी पत्नी ऐसे ही तो नहीं बना पाए थे .... कैसे बावले हो जाते थे जब भाभी गाती थीं, " फूल हंसा चुपके से...." नैपथ्य में तो लता जी ही हंसती थी,  सुवर्णा दीदी और पराग भइया का गुपचुप परवान चढ़ता प्रेम , " मुझे तुम मिल गए हमदम.... " या  "हमको मिली हैं आज ये घड़ियाँ नसीब से......"   और नब्बे के दशक का मेरा पहला पुरुष मित्र जिसने मुझसे मित्रता एक गीत सुनने के बाद की थी, " सिर्फ एहसास है ये , रूह से महसूस करो......  " एक दशक से भारत के हर आँगन के दुख दर्द में  लता जी के स्वर शामिल रहे , शगुन , बधाई , प्रेम विछोह, सेहरा, घोड़ी , फेरे या बिदाई  और पीढ़ियों के दुःख में शामिल आवाज़ आज  हमें सदा सर्वदा के लिए छोड़ गयी. 

मुझे बाई स्कोप की बातों के दौरान कमल शर्मा जी द्वारा सुनाया गया   प्रसंग याद आ रहा है , जिन दिनों लता जी ने गाना प्रारम्भ किया था, इंडस्ट्री में शमशाद बेगम जैसी गायिकाओं की  तूती  बोलती थी , सधे हुए पल्ले की साड़ी में लिपटी षोडशी ने जब   झिझकते हुए पहला गीत रेकॉर्ड किया था ,  शमशाद बेगम ने उनका माथा चूमा और खुश हो कर , एक रुपया उनकी हथेली  पर धर आशीर्वाद दिया, " जियो और नूर बन कर पूरी दुनिया पर छा जाओ...  लता जी ने उस सिक्के को आशीर्वाद समझ पूजा घर में  छोड़ा और पीछे मुड़  कर नहीं देखा !  ये वह दौर था जब कलाकारों  में एक दूसरे को लेकर गहरी मोहब्बत हुआ करती थी.

कहते हैं, महान कलाकार अपने सीने में बड़े दुःख छिपाये जीते हैं, और यही दर्द उनकी प्रतिभा के शिखर का अंतिम पड़ाव होता है. जीवन भर स्वर उपासिका रही लता जी ,  जिन की आवाज़ में नूर का पूरा सूरज छिपा था, जिसने हर मौके पर हर जज़्बात को जुबां दे दी , इस मुल्क की हर दोशीज़ा के सन्देश को उसके आशिक़ तक पहुंचाया स्वयं अपने प्रेमी से यह न कह सकीं कि शिद्दत की किन इन्तेहाओं से गुज़र कर वे उनसे कितना प्रेम करती थी! राज सिंह डूंगरपुर (जो प्रेम से लता को मिट्ठू कहते थे ) अपने अंतिम समय तक लता जी से प्रेम करते रहे , लता भी उस मोहब्बत को सीने में छुपाये सुपुर्दे ख़ाक हुईं, बेशुमार जज़्बातों में रूह फूंकती आवाज़  अप् ना  ही हाल दिल नहीं कह पाई , शायद ये अधूरापन इन्हे फिर से दुनिया में आने को मजबूर करे , कौन जाने दीदी इस अधूरी ख्वाहिश को पूरा करने ही दुबारा आएं और हमें लता दीदी फिर मिल जाएँ....     

सब खाम ख्याली है... कश्मीर से प्रोफेसर फिरदौज़ का फोन आया है  , कह रहे हैं " चिनारों की सुर्ख़ियों के गीलेपन की क़सम है सहबा! लता दीदी जन्नत से उतारी गईं, अल्लाह का वह करिश्मा थीं जो आवाज़ का गौहरे ,नायाब था....   सरहद पार से आबिदा परवीन के दुखद स्वर रेडियो सेट पर गूँज रहें हैं, वे व्यथित सी कोई श्रृद्धांजलि गा रही हैं.....    टीवी पर खबर आ रही, " लता जी का अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ  शिवा जी पार्क में होगा। सरहदें अपने झगड़े भूल गईं हैं, सियासतें सहम गयी हैं और सत्ता , सत्ता कुर्सी कुर्सी गाने वाले स्तब्ध भाव से देख रहें हैं कि आज सचमुच की वह मलिका जा रही है जिसने पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के दिलो पर राज किया और जिनकी जगह कोई भी कभी भी नहीं ले सकता .......  

सीमा पार से 

रविवार, 23 अगस्त 2020

क्षमा

 क्षमा 

क्षमा क्षमा प्रियवर

आत्मीय, वंदनीय क्षमा ! 

हर दुर्बलता वश हुए पाप पर 

हर झूठ, हर द्वंद, हर कलाप पर 

हर युद्ध, हर वध, हर प्रपंच छल पर 

हर दीनता, हर विवश हल पर 


क्षमा करना हे आत्मीय मुझको 

कि जन्म मानव का मिला है 

दानव कर्म भी करने होंगे 

पाप और पुण्य से आगे 

मुझको  कुछ कर भरने होंगे 


कच्ची मिट्टी का घट हूँ 

ईश्वर की कमज़ोर कृति हूँ 

भारी मन से क्षमा दिवस पर

प्रिये! तुम्हारे समक्ष नति हूँ 


क्षमा दान दे कर के मुझको 

तुम भी अपने कर्म सजा लो 

एक तनिक सी भिक्षा देकर 

तुम अमरों का लोक ही पा लो 

           डॉ सेहबा जाफ़री🙏🙏🙏🙏 (उत्तम क्षमा)

मंगलवार, 11 अगस्त 2020

जन्मदिन मुबारक कान्हां

 



नंदनबन में बारिश है  और कान्हां हमसे रूठे हैं  

इश्क़ रुतों में, मुश्क़ हवा में, हम ही टूटे टूटे हैं

 

शबनम, गुंचे, भंवरे, खुश्बू, हल्दी मेहंदी और लाली

क्या बतलाऊं तुम जो नहीं तो मुझसे क्या क्या छूटे है

 

गैया, गुंजा, गलियां, गोकुल सबको मिला है इश्क़ तेरा

मैं तो हूं तक़दीर से राधा, मेरे क़िस्मत फूटे हैं

 

पूरा गोकुल लिये खड़ा है तेरी शिकायत की अर्ज़ी

ख़फ़गी के आलम में यशोदा धान फ़सल को कूटे है

 

बात ज़ुबां पर आ जाती तो क्या ही अच्छा था

ऐसी बेमतलब ख़ामोशी, जान जिस्म से छूटे है

 

तुम तो एक मुरलिया थामें निकल पड़े बस्ती बन में

तुम क्या जानो इसकी ताने किसका क्या क्या लूटे है

लोरी


मंगलवार, 10 मार्च 2020

वर्तमान समय एवं मीडिया की प्रासंगिकता

सुनते हैं बडी तरक्की कर ली है हमने! सभी कुछ आधुनिक हो गया है। भक् भक् कर  जलती बत्तियाँ, पिटर पिटर कर मटकती थिरकती परियाँ, सुंदर आलीशान इमारतें, उनके पोर्टिको मे खड़ी बडी बडी गाड़ियाँ! कम्प्युटर, रोबोट, ढेर सी मशीनें। बहुत सा समय बचने लगा है अब पास मे! खूब सी आसान ज़िंदगी मे अब खुद के लिए संजोने का खूब सा वक्त जुटाया जा सकता है।

पहले जिन खबरों को जानने समझने के लिए घर से दूर घोटूल तक जाना पड़ता था अब वही खबरे एक क्लिक पर खुद घर पर आ जाती हैं! सब मीडिया की कृपा है! कितना कुछ सीख गए हैं हम सब!!

बच्चे सीख गए हैँ बडी बडी बाते!  दूध के दांत टूटने से पहले याद हो जाती हैं उन्हें "बॉय फ्रेन्ड, और गर्ल फ्रेन्ड की परिभाषा। बडी बडी स्पेलिंग से पहले सीख जाते हैं वे सास बहू के सीरियल की खुरफातें!  मैकेनिकल लैब से ज्यादा भरोसा होता है उन्हें नागिन के सीरियल के चमत्कारों पर! वोट देने की उम्र से पहले वे सीख जाते हैं कि उनके मां पिता किस पार्टी के हैं और आगे उन्हें किस  पार्टि का सहयोग देना है!!
            भला हो मीडिया का! बच्चे सयाने कर दिये हैं इसने! वे जानने लगे हैं, "मिड लाइफ क्राइसेज़,  मैरिड लाइफ, क्राईसेज़ और डिफ्रेंट सेक्सुअल प्लेज़र के बारे मे। उन्हें पता है  अनचाहे गर्भ से कैसे छुटकारा पाते हैं! और क्या करने से लडकी प्रेग्नेंट नही होती!! (एक हम लोग बुद्धू थे, कुछ अता था न पता!)

    उन्हे नही चाहिए शिक्षक! सारे नोट्स तो अपलोड हैँ नेट पर;!! वे समझते हैं हिन्दू, मुस्लिम,  जात पात, शादी ब्याह, देश विदेश, डाईनोसोर और  पुरातन मानव! मीडिया सब बता रहा है उन्हे!!

  चार साल की बच्ची को भी समझ आने लगा है कि लड़की होने के नाते उसका खूबसूरत दिखना कितना आवश्यक है! और ८ साल का लड़का भी समझ चुका है कि  श्रम के चक्कर में पड़े बगैर कौनसा रसायन खा कर अपने बाज़ू २२ के करने है।

सब मीडिया की ही कृपा है  बच्चा गर्भ मे ही बड़े बड़े ज्ञान सीख जाता है वह भी अतिशयोक्ति अलंकार समेत! वरना माँ के भरोसे रहे  अभिमन्यू बस चक्रव्यू मे जाना ही सीखे थे, गूगल किया होता तो  वापस आना भी सीख जाते!

       कभी कभी तो मीडिया अ नव रत सिखा ए  चला जाता है,इतना कि तो हम यह भी भू ल जाते हैं कि क्या सीख ने निकले थे औ क्या ही सीख गए हैं। अभी कल का ही लो एक न्यू ज़ चै नल पर दो  राजनैतिक दलों की बहस चल रही थी विपक्षी दल ने अन्य दल पर वाक प्रहार किया, "आपने चूड़ियाँ पहन रखी थीं" देश, विकास, सड़क, परिवहन, शिक्षा, बेरोज़गार युवा , गरीबी और  बड़े बड़े सरकार पलटने वाले मुद्दे एक तरफ!  और चूड़ियों का राग एक तरफ! वह नाच चला कि श्रीदेवी के नौ नौ चूड़ियों के नाच भी शरमा जायें!  पब्लिक यह भी भूल गई कि वह यह बैठी क्यों थी!! और मै यह भूल  गई कि मैंने tv क्यों चलाया था! 
     धन्य धन्य है मीडिया! बच्चों को आखिरकार सिखा ही देता है कि स्याह को सफेद और सफ़ेद को स्याह कैसे बताते हैँ! मीडिया बताता है कि चाटुकारिता यदि  एक पंखे की भी करनी हो तो उसकी हवा के वेग को इतना तेज़ बता दो कि पलायन वेग भी शर्मा जाये!!!
 मीडिया ने ही तो समझाया है ब्लू व्हाल खेलो, फेस् बुक चलाओ, पोर्न देखो, ओन लाइन शॉपिंग करो, खुश रहो! बेवकूफ सनकी बुढे राजनिति के लिए हैं, रिटायर्ड प्रोफेसर्स  अनुसंधान करेंगे,  और गणित के नये आयाम तलाश करने के लिए उन मुल्कों के बच्चे हैं, जहाँ मीडिया नही होता!!


बुधवार, 1 अगस्त 2018

मीना: एक दर्द भरा नग़्मा


  
“मीना” हिंदी फ़िल्मों की “ट्रेजेडी क़्वीन”. “मीना” जैसे रब की सबसे मुकम्मल तख्लीक. “मीना” जैसे स्याह आसमान की क़िस्मत में आया कोई चौहदवीं का चांद; “मीना” जैसे बारिश की भीगी शाम ख़िडकी पर गूंजता बूंदों का जलतरन्ग. लिल्लाह! एक नाम और ख्वाहिशों का इतना लम्बा भीगता सा जंगल, तिस पर बक़ौल मीना:
“तुम क्या करोगे सुन कर मुझसे मेरी कहानी
बेलुत्फ़ ज़िंदगी के क़िस्से हैं फीके फीके”
    हाँजी! वही एक नाम, ज़िंदगी को जिस पर कभी रहम नही आया और क़ुदरत की शतरंज के अनदेखे ख़िलाडी ने जिसके खाते में घात और मातों ले अलावा कुछ नही लिखा वही मीना जिस पूरेपन से जीं और ज़िंदगी की बाज़ी को जीत इस जहाँ को तन्हां छोड कर चली भी गयीं, उसी मीना की जगह आज इतने तवील अरसे में भी कोई नही ले पाया; ये कायनात के निज़ाम पर क़ुदरत के क़ब्ज़े का बेजोड नमूना नही तो और क्या है!
    हिंदी सिने इंडस्ट्री उन दिनों अपने शबाब पर थी और मीना के बचपन ने बस आंखें खोली ही थी कि वक़्त, भूख और ग़रीबी की ज़रूरतों ने मीना को नन्हें कलाकार के रूप में इंडस्ट्री की देह्लीज़ पर ला कर खडा कर दिया. और फिर 1 अगस्त 1933 में जन्मी बेबी माह्जबीं के ख़ून में नानी हेमसुंदरी के पारसी-रंगमंच की तेह्ज़ीब क्या ज़िंदा हुई इंडस्ट्री में उनका नाम ही बदल गया. मां प्रभादेवी और अब्बू अली-बख्श की नूर चश्मी अब  बतौर नायिका (उम्र 13 साल, फिल्म: एक ही भूल) मीना कुमारी के नाम से जानी जाने लगीं. जब निर्देशक विजय भट्ट साहब ने उन्हें यह नाम दिया था वह भी नही जानते थे कि मोर पांख सी नज़ाकत लिये, इस शीश-परी का यह चमकदार नाम इंडस्ट्री को चौंधिया कर रख देगा और रोशनियों की पूरब-पच्छ्म फैलती किरनें इसे नयी नस्ल की नयी कलाकार के रूप में वक़्त के माथे पर सूरज सी अफ़्ज़ां कर के रख देंगी. जी हाँ जनाब! यह वही मीना है एक के बाद जिनके खाते में बैजू बावरा, परिणीता, साहिब बीबी और ग़ुलाम, और काजल जैसी कालजयी फ़िल्में आयीं और बतौर अभिनेत्री उनकी झोली में एक नही कईं फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कारों की झडी सी लग गई. सही भी है मीना ने जिस किरदार को पर्दे पर जिया उसमें ज़िंदगी भर कर रख दी. आप बिमल मित्र जी की उपन्यास साहिब बीबी और ग़ुलाम, को ज़रा पढ कर तो देखिये जनाब! “छोटी बहू” के किरदार में मीना ख़ुद ब ख़ुद अपने आपको ज़िंदा कर लेंगी, “मोहिनी सिंदूर” पाने को लालयित भारतीय नारी हो या पति की राह देखती पतिव्रता हो, शराब पीकर मद्मस्त हुई और कंकाल बनी भागो हो या “पिया ऐसो जिया में समाई गयो रे..”लफ्ज़ों पर लजाती अदाकारा हो मीना हर ज़ाविये से एक नयी मीना हो देखने वालों को बांध कर रख लेती हैं.  उनकी उठती गिरती पलकों से बयां होती मोहब्बतों की शिद्दतें, और अदाओं से खुलते नज़ाकत भरे लब जब बेहद रोशन जबीं (मस्तक) से मिल, मान से सर उठाते हैं, इन अदाओं में एक सूफ़ियत नुमायां होने लगती है, दिल में कुछ गूंजता है तो बस उन्हीं का मिसरा, “हमसे इबादतों में कमी रह गयी अगर/ रह रह के अपने माथे पे” मारा करेंगे हम.” सच भी है! अदाकारी मीना के लिये इबादत से कम नही थी. परिणीता की ललिता’, काजल की माधवी’, पाकीज़ा की साहिबजान और चित्रलेखा की चित्रलेखा किरदारों की लम्बी फेहरिस्त और हर किरदार के साथ निखरती मीना की अदाकारी. लम्बी, थकाऊ और चूर कर देने वाली मेहनत, डाईरेक्टर के तकाज़े और उसके बाद उभर कर आते  मीना के रंग. शायद इन्हीं रंगों की चकाचौंध थी कि कमाल अमरोही जैसे नामचीन डाईरेक्टर भी ख़ुद को मीना के जादू से बचा नही पाये.मीना की धडकने गाने लगीं:
आगाज़ तो होता  है
अंजाम नही होता
जब मेरी कहानी में
वह नाम नही होता.
    दोनो ने अपनी अपनी ज़िंदगी एक दूसरे के नाम करने का फ़ैसला ले लिया. शादी से तलाक़ तक तवील सफ़र हालांकि मीना और कमाल साहब ने बडे ही तेज़  रफ़्तार क़दमों से पूरा किया पर इस सफ़र के पाकीज़ा जैसे पढाव को हिंदी सिने इंडस्ट्री आज भी फ़रामोश नही कर सकी. हालांकि पाकिज़ा से पहले भी शारदा, आरती, और दिल एक मंदिर जैसी फ़िल्में मीना के खाते में दर्ज हैं पर पाकीज़ा का जादू आज तक सर चढ कर बोलता है. “साहिबजान” महज़ तवायफ़ जब “ सलीम अली ख़ान” एक फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर से मोहब्बत कर बैठती है दुनिया समाज को धता बता कर जब दोनो भागने की तय्यारी करने  लगते हैं तो हक़ीकत से दो चार होते ही साहिबजान फिर अपने कोठे में ही पनाह लेने को मजबूर हो जाती है. बेहद पुर कशिश मगर बीमार मीना, कुल जमा 6 सुपर-डुपर हिट गाने:
·       चलो दिलदार चलो...
·       चलते चलते...
·       इन्हीं लोगों ने ले लीना..
·       ठाडे रहियो ओ बांके यार...
·       मौसम है आशिक़ाना...
·       आज हम अपनी दुआओं का असर...
    हर गाना मौसिक़ि की मिसाल, हर सेट सिनेमेट्रोग्राफ़ी का बेजोड नमूना और हर शॉट में मीना बीमार मगर अपने होने की मिसाल. ज्यों ज्यों मीना का फ़न परवान चढता गया और उसे लोगों की चाहतें मिलती गईं, सच्ची मोहब्बत उतनी रफ़्तार से मीना से दूर भागती रही. जवानी, हुस्न, दौलत और शोहरत क्या नही था मीना के पास. बस नही थी तो एक सच्ची मोहब्बत! कईं नामचीन लोगों के धोखे का शिकार हो मीना “ साग़र-ओ-मीना” को अपना दिल दे बैठी और लीवर के कैंसर के आख़िरी पढाव के दौरान जब दर्द के शिद्दत से दूर भागने क लिये पाकीज़ा के रूप में अपना फ़न्ने अदाकारी बिखेरा तो नतीजा ऐसे ही सामने आया जैसे पाब्लो पिकासो की आख़िरी पैंटिंग हो. 28 मार्च 1972. पाकीज़ा बन कर पूरी हुई और रह्मताबाद क़ब्रिस्तान के एक बोसीदा अंधेरे कोने से मीना के आखिरी सफ़र का बुलावा आ गया.
    हज़ारों बार हंस हंस के अपने ही जवां दिल के टुकडे चुनने वाली मीना को ज़िंदगी ने बहुत दिया पर कुछ अरमान फिर भी थे जो ज़िंदगी से पहले ही दम तोड गये थे. उन्हें मोहब्बत  नही मिली; वे अपने शोहर की बाहों में दम नही तोड पाईं; मां बनने की हसरत मीना के साथ ही दम तोड गई और मीना इस ज़िंदगी से बग़ैर कुछ लिये चली गईं... बेहद तन्हां...
पूरी चांदनी रातें मीना की याद आने पर आज भी गुनगुनातीहैं:   
चांद तन्हां है आसमां तन्हां
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हां
ज़िंदगी क्या इसी को कह्ते हैं
जिस्म तन्हां और जां तन्हां
राह देखाकरेगा सदियों तक
छोड जायेंगे ये जहां तन्हां
       लोरी अली

मीना: एक दर्द भरा नग़्मा



“मीना” हिंदी फ़िल्मों की “ट्रेजेडी क़्वीन”. “मीना” जैसे रब की सबसे मुकम्मल तख्लीक. “मीना” जैसे स्याह आसमान की क़िस्मत में आया कोई चौहदवीं का चांद; “मीना” जैसे बारिश की भीगी शाम ख़िडकी पर गूंजता बूंदों का जलतरन्ग. लिल्लाह! एक नाम और ख्वाहिशों का इतना लम्बा भीगता सा जंगल, तिस पर बक़ौल मीना:
“तुम क्या करोगे सुन कर मुझसे मेरी कहानी
बेलुत्फ़ ज़िंदगी के क़िस्से हैं फीके फीके”
    हाँजी! वही एक नाम, ज़िंदगी को जिस पर कभी रहम नही आया और क़ुदरत की शतरंज के अनदेखे ख़िलाडी ने जिसके खाते में घात और मातों ले अलावा कुछ नही लिखा वही मीना जिस पूरेपन से जीं और ज़िंदगी की बाज़ी को जीत इस जहाँ को तन्हां छोड कर चली भी गयीं, उसी मीना की जगह आज इतने तवील अरसे में भी कोई नही ले पाया; ये कायनात के निज़ाम पर क़ुदरत के क़ब्ज़े का बेजोड नमूना नही तो और क्या है!
    हिंदी सिने इंडस्ट्री उन दिनों अपने शबाब पर थी और मीना के बचपन ने बस आंखें खोली ही थी कि वक़्त, भूख और ग़रीबी की ज़रूरतों ने मीना को नन्हें कलाकार के रूप में इंडस्ट्री की देह्लीज़ पर ला कर खडा कर दिया. और फिर 1 अगस्त 1933 में जन्मी बेबी माह्जबीं के ख़ून में नानी हेमसुंदरी के पारसी-रंगमंच की तेह्ज़ीब क्या ज़िंदा हुई इंडस्ट्री में उनका नाम ही बदल गया. मां प्रभादेवी और अब्बू अली-बख्श की नूर चश्मी अब  बतौर नायिका (उम्र 13 साल, फिल्म: एक ही भूल) मीना कुमारी के नाम से जानी जाने लगीं. जब निर्देशक विजय भट्ट साहब ने उन्हें यह नाम दिया था वह भी नही जानते थे कि मोर पांख सी नज़ाकत लिये, इस शीश-परी का यह चमकदार नाम इंडस्ट्री को चौंधिया कर रख देगा और रोशनियों की पूरब-पच्छ्म फैलती किरनें इसे नयी नस्ल की नयी कलाकार के रूप में वक़्त के माथे पर सूरज सी अफ़्ज़ां कर के रख देंगी. जी हाँ जनाब! यह वही मीना है एक के बाद जिनके खाते में बैजू बावरा, परिणीता, साहिब बीबी और ग़ुलाम, और काजल जैसी कालजयी फ़िल्में आयीं और बतौर अभिनेत्री उनकी झोली में एक नही कईं फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कारों की झडी सी लग गई. सही भी है मीना ने जिस किरदार को पर्दे पर जिया उसमें ज़िंदगी भर कर रख दी. आप बिमल मित्र जी की उपन्यास साहिब बीबी और ग़ुलाम, को ज़रा पढ कर तो देखिये जनाब! “छोटी बहू” के किरदार में मीना ख़ुद ब ख़ुद अपने आपको ज़िंदा कर लेंगी, “मोहिनी सिंदूर” पाने को लालयित भारतीय नारी हो या पति की राह देखती पतिव्रता हो, शराब पीकर मद्मस्त हुई और कंकाल बनी भागो हो या “पिया ऐसो जिया में समाई गयो रे..”लफ्ज़ों पर लजाती अदाकारा हो मीना हर ज़ाविये से एक नयी मीना हो देखने वालों को बांध कर रख लेती हैं.  उनकी उठती गिरती पलकों से बयां होती मोहब्बतों की शिद्दतें, और अदाओं से खुलते नज़ाकत भरे लब जब बेहद रोशन जबीं (मस्तक) से मिल, मान से सर उठाते हैं, इन अदाओं में एक सूफ़ियत नुमायां होने लगती है, दिल में कुछ गूंजता है तो बस उन्हीं का मिसरा, “हमसे इबादतों में कमी रह गयी अगर/ रह रह के अपने माथे पे” मारा करेंगे हम.” सच भी है! अदाकारी मीना के लिये इबादत से कम नही थी. परिणीता की ललिता’, काजल की माधवी’, पाकीज़ा की साहिबजान और चित्रलेखा की चित्रलेखा किरदारों की लम्बी फेहरिस्त और हर किरदार के साथ निखरती मीना की अदाकारी. लम्बी, थकाऊ और चूर कर देने वाली मेहनत, डाईरेक्टर के तकाज़े और उसके बाद उभर कर आते  मीना के रंग. शायद इन्हीं रंगों की चकाचौंध थी कि कमाल अमरोही जैसे नामचीन डाईरेक्टर भी ख़ुद को मीना के जादू से बचा नही पाये.मीना की धडकने गाने लगीं:
आगाज़ तो होता  है
अंजाम नही होता
जब मेरी कहानी में
वह नाम नही होता.
    दोनो ने अपनी अपनी ज़िंदगी एक दूसरे के नाम करने का फ़ैसला ले लिया. शादी से तलाक़ तक तवील सफ़र हालांकि मीना और कमाल साहब ने बडे ही तेज़  रफ़्तार क़दमों से पूरा किया पर इस सफ़र के पाकीज़ा जैसे पढाव को हिंदी सिने इंडस्ट्री आज भी फ़रामोश नही कर सकी. हालांकि पाकिज़ा से पहले भी शारदा, आरती, और दिल एक मंदिर जैसी फ़िल्में मीना के खाते में दर्ज हैं पर पाकीज़ा का जादू आज तक सर चढ कर बोलता है. “साहिबजान” महज़ तवायफ़ जब “ सलीम अली ख़ान” एक फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर से मोहब्बत कर बैठती है दुनिया समाज को धता बता कर जब दोनो भागने की तय्यारी करने  लगते हैं तो हक़ीकत से दो चार होते ही साहिबजान फिर अपने कोठे में ही पनाह लेने को मजबूर हो जाती है. बेहद पुर कशिश मगर बीमार मीना, कुल जमा 6 सुपर-डुपर हिट गाने:
·       चलो दिलदार चलो...
·       चलते चलते...
·       इन्हीं लोगों ने ले लीना..
·       ठाडे रहियो ओ बांके यार...
·       मौसम है आशिक़ाना...
·       आज हम अपनी दुआओं का असर...
    हर गाना मौसिक़ि की मिसाल, हर सेट सिनेमेट्रोग्राफ़ी का बेजोड नमूना और हर शॉट में मीना बीमार मगर अपने होने की मिसाल. ज्यों ज्यों मीना का फ़न परवान चढता गया और उसे लोगों की चाहतें मिलती गईं, सच्ची मोहब्बत उतनी रफ़्तार से मीना से दूर भागती रही. जवानी, हुस्न, दौलत और शोहरत क्या नही था मीना के पास. बस नही थी तो एक सच्ची मोहब्बत! कईं नामचीन लोगों के धोखे का शिकार हो मीना “ साग़र-ओ-मीना” को अपना दिल दे बैठी और लीवर के कैंसर के आख़िरी पढाव के दौरान जब दर्द के शिद्दत से दूर भागने क लिये पाकीज़ा के रूप में अपना फ़न्ने अदाकारी बिखेरा तो नतीजा ऐसे ही सामने आया जैसे पाब्लो पिकासो की आख़िरी पैंटिंग हो. 28 मार्च 1972. पाकीज़ा बन कर पूरी हुई और रह्मताबाद क़ब्रिस्तान के एक बोसीदा अंधेरे कोने से मीना के आखिरी सफ़र का बुलावा आ गया.
    हज़ारों बार हंस हंस के अपने ही जवां दिल के टुकडे चुनने वाली मीना को ज़िंदगी ने बहुत दिया पर कुछ अरमान फिर भी थे जो ज़िंदगी से पहले ही दम तोड गये थे. उन्हें मोहब्बत  नही मिली; वे अपने शोहर की बाहों में दम नही तोड पाईं; मां बनने की हसरत मीना के साथ ही दम तोड गई और मीना इस ज़िंदगी से बग़ैर कुछ लिये चली गईं... बेहद तन्हां...
पूरी चांदनी रातें मीना की याद आने पर आज भी गुनगुनातीहैं:   
चांद तन्हां है आसमां तन्हां
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हां
ज़िंदगी क्या इसी को कह्ते हैं
जिस्म तन्हां और जां तन्हां
राह देखाकरेगा सदियों तक
छोड जायेंगे ये जहां तन्हां
       लोरी अली