बरोडा, ग़ुजरात के पास एक छोटा सा गांव अमरोली; उसके नन्हे से क़स्बे की बडी सी हवेली का ज़नाना, जिसमे दर्दे ज़ेह से करहाती “फ़रीदा बेगम” और पेहलौठी के बच्चे का इंतेज़ार
करते मुम्बई से वकालत पढ कर आये जनाब मुस्तफ़ा शेख़. दोनो ही इस बात से अंजान कि
अल्लाह एक के बाद एक पांच औलादे-नरीना अता करेगा पर यह जो पहला है उसकी सादगी, “उसकी शान” बन कर हिंदुस्तान की
सिनेमाई दुनिया पर नूरो अम्बर का एक शामियाना तान देगी. 25 मार्च 1948, ग़ुलाम हिंदोस्तान की जद्दोजहद के बीच खुलता आज़ादी का दरवाज़ा और उसी
देह्लीज़ पर हिंदी सिनेमा को सौगात में मिला फारूख़ शेख़ का वुजूद जब आंखो के आगे
रक़्स करता है तो लगता है गहरी गहरी आंखो से
किसी का सच धीमे धीमे झांकता हुआ रूह में घुल रहा है, अदाकारी की प्यास पर कलाकारी के ठंडे ठंडे छींटे मारता रूह को सरापा एक नग़मे
से सरबौर कर गुनगुनाता, “आजा रे! आजा रे ओ मेरे दिलबर आजा....”
हिंदी सिनेमाई दुनिया में “किचन सिंक ड्रामा”
की थीम और “एंग्री यंगमन” वाले किरदारों की बीच फ़ारूख़ की अदाकारी अपनी एक अलग पह्चान
रखती है. उनके चाहने वाले आम लोगों के बीच बहुत ख़ास होते हैं और जब बज़्म मे उनका ज़िक्र
आता है तो जैसे गिनती हमेशा से ही पलट जाती है, एक ऐसा चुम्बक काम करता है जो मक़नातीसी जादू
से अपनी तरफ़ खींचता सा लगता है और एक आम आदमी के ख़्वाब, एक आम आदमी की मज्बूरी और एक आम आदमी की कमियां पर्दे पर जीते जीते ही फ़ारूख़
अदाकारी की एक नई इबारत गढते हिंदी सिनेमा के अल्हदा रंग की पह्चान बन जाते हैं. चश्मेबद्दूर
का ‘सिद्दार्थ पाराशर’ हो या साथ साथ का ‘अविनाश वर्मा’, कथा का ‘राजाराम’ हो या किसी से न कहना का ‘रमेश त्रिवेदी’ अलग अलग किरदारों को अलग अलग अंदाज़ मे जीती फ़ारूख़ की शख़्सियत अदाकारी की सादगी और ताज़ापन हिंदी सिनेमा की थाली में कुछ यों परोस
कर रख देती है कि आंखे उसे दुहरा दुहरा कर देखने को मजबूर हो जाती हैं. मेरा दामाद, लिसन अमाया, नूरी, रंग बिरंगी, क्लब 60, और भी न
जाने कितनी यादें...जिनके रंग पुराने नही
पडते वे धीमे धीमे फैल कर गुलाल हो जाया करते हैं.
शौक़िया तौर पर थियेटर करते हुए फारूख़ ने क्रिकेट
को अपना पह्ला प्यार माना था. पत्नी रूपा उनका दूसरा प्यार. बेशक फारूख़ का एक्टिंग
बतौर करियर एक इत्तेफाक़न लिया गया फैसला था जिससे इनके अम्मी अब्बू बहुत खुश नही थे पर किसी
क़िसम का गुरेज़ भी नही..बस एक फितरत थी जिसने हमेशा से कुछ अलग करने को उकसाया. यही वजह थी कि सेंट ज़ेवियर्स का बैक बेंचर और सेंट मैरीज़
का लेक्चर बंक कर कैंटीन मे बैठनेवाला और ज़िंदगी को जुरआ जुरआ पीने वाला, गहरी आंखो वाला यह नौजवान वकालत की मंज़िलों का रास्ता रास्ते में छोड अपनी फ़ितरतों
की ज़िद मान बैठा और ऐसे ही ज़िद्दी और कुछ अलग कर गुज़रने वाले लोगों ने हिंदी सिनेमा
को मैन- स्ट्रीम-सिनेमा से निकाल एक नया सिनेमा दिया जो आगे चल कर “समानांतर सिनेमा”
कह्लाया. उन दिनो जापान और फ़्रांस के एक्पेरिमेंटल नज़रिये ने हिंदी सिने जगत पर ख़ासा
असर डाला था और सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक साहब की हाथों बंगाली सिनेमा बेहद
खुश्नुमा रूप ले रहा था बस उसी फिज़ा में सांस लेते हुए फारूख साहब के फन्ने अदाकारी
ने अपने रंग बिखेरने चालू किये और नतीजतन “आर्ट-मूवीज़” का ज़ायक़ा हिंदी ज़हन आज तक फ़रामोश
नही कर सका.
फारूख़ के करियर की पह्ली फिल्म ग़र्म हवा एक मील का पत्थर थी पर इसी फिल्म ने जनाब सत्यजीत रे साहब को फारूख के बेशुमार
टेलेंट का अंदाज़ा करवाया था और उनके खाते में शतरंज के खिलाडी जैसी फिल्म आन
गिरी थी. उपन्यास सम्राट की क़लम से तह्रीक़
हुई इस कहानी में किरदार के साथ इंसाफ एक बडा ही मुश्किल काम था. फ़ारूख़ साहब
ने इसे एक चैलेंज की तरह लिया और बेहद सधे अंदाज़ की अदाकारी से ना केवल सिने प्रेमियों
के बल्कि अदाकारी से मोहब्बत रखने वालों के भी दिल में घर कर लिया. अदाकारी की रफ़्तार
का आलम तो फिर सब जानते ही हैं .. दिल पर हाथ रख कर कहिये जनाब! रमोला को कचोरियां थमा “सुफ़ैद
नही तो काला, पीला, लाल कोई भी झूठ बोल देना! पर बोल ज़रूर देना:”
वाले रमेश बाबू को आप भूल पाये हैं! या चश्मेबद्दूर के “प्यार, लगावट, प्रणय, मोहब्ब्त” के बोल
पर थिरकते, बाइक पर ट्रिपलिंग़ मारते सिद्धार्थ को आपने दिल से
नही चाहा!!!
फारूख साहब का ज़िक्र हो और "नूरी", "बाज़ार" और "उमरावजान" ज़हन के दरवाज़े पर दस्तक न दें, ऐसा भला हो सकता है! शहरयार साहब का कलाम और ख्य्याम साहब की मौसिक़ी के बीच फारूख
की अदाकारी!!! रेखा जैसी बेहद ग्लैमरस ऐक्ट्रेस के पह्लू में बैठे नवाब सुल्तान (फारूख़
साहब) और मकालमे के नाज़ो अंदाज़: “किस किस तरह से मुझको ना रुस्वा किया गया/ ग़ैरों
का नाम मेरे लहू से लिखा गया ....” निगाहों की बेबसी से बयां होती कल्बी कश्मकश और
“तशरीफ़ लाइये हुज़ूर! और आइये हुज़ूर” के बीच ज़ाहिर एक नौसिखिया नवाब की झिझक से लबरेज़
एक जुमला, “हम कोठों पर कभी नही आते” जवाबन उमराव की शरारत “अब
हम ऐसे बुरे भी नही” में दिया गया निहायत भोला नवाबी एक्सप्रेशन. लिल्लाह!!! कितनी
फ़ारूखियत टपकती है इस सीन में! इतनी की ख़ुद फ़ारूख साहब अदाकारी का दूसरा नाम हो उठते
हैं, देखिये तो ज़रा:
फ़ारूख़ (सुल्तान नवाब) : कल रात का नशा
तो उतरा ही नही, ऐसा मालूम होता था
जैसेआप हमारे लिये ही गा रही हों
उमराव: लीजिये भला! और वहां आपके जैसी शायरी और मौसिक़ी की
समझ रखने वाला था ही कौन!
फ़ारूख़ (सुल्तान नवाब) : (कोठे वालियों
की जुमलेबाज़ी से नाआश्ना नवाबियत के तेवरों से बेख़बर एक बेहद मासूम इंसान की तरह) जल्द्बाज़ी
मे हम दाद देना ही भूल गये
उमराव: इससे बडी दाद क्या होगी कि कोईं
दाद देना ही भूल जाये
कितना इंसाफ किया था नवाब साहब के किरदार से फ़ारूख
साहब ने कि आज तक यादें ज़हन पर ताज़ा हैं! नवाब ही क्यों क्या आप बाज़ार के “सर्जू” को फ़रामोश कर पाये हैं! नही न!!! जाने
दीजिये दास्तान तवील है और ज़ेहन मे अपनी मासूमियत समेटे फारूख साहब का तसव्वुर अपने
पूरेपन पर “ फिर छिडी रात बात फूलों की.....”
हाँजी जनाब!!
ये वे लोग थे जिनका रास्ता अलग था, जो भीड नही थे, जिनका तस्व्वुर कुछ ऐसा था जैसे सेहरा में रात फूलों की.....” इंतेक़ाल
के बाद जिनकी सालगिरह यादों की काफूर जैसी महक उठाकर हाल से माज़ी में पटक देती है.....सालगिरह
की मुबारकबाद दिये जाती हूं चुल्हे पर रखे दूध मे उफान आ गया है और आंखों से भी दो
बूंदे झलक गयी हैं , बतौर ख़िराजे अक़ीदत.....
15 टिप्पणियां:
बहुत खूबसूरत तहरीर फारुक साब के बारे में।
'तुम्हारी अमृता ' में मैंने उनका और सबाना आजमी का शानदार अभिनय देखा तो मेरे जेहन से शायद ही कभी मिटे। ऐसे फनकार इस ज़मीन पर कभी कभी ही आते हैं। सलाम!
shukriya... sath banaa rahe...
ji ... fehrist lmbi hai... :)
बहुत सुंदर प्रस्तुति.
फारूख साहब को पहली बार नूरी में देखा था,बाद में कई फिल्मों में.जिस फिल्म में काम किया,अपनी अमिट छाप छोड़ी.मुझे याद आते हैं - साथ-साथ का वो गीत- 'ये तेरा घर ये मेरा घर,ये घर बहुत हसीं है'.ये मुझे आज भी अजीज हैं.
बस अभी के अभी कॉलेज से लौटा हूं (ये मत पूछियेगा कि छुट्टी के दिन कालेज काहे गये थे) और फारूख साहब को आपके हवाले से जान लिया ! अरसा गुज़रा आपसे बात नहीं हो पाई !
shukriya...sath banaa rahe
माफ़ कीजियेगा आपको ज़ेहमत दी, पर जाने क्यों!!! लिखूं और आप न पढें तो अधूरा अधूरा लगता है ......इस चीज़ में कम्बख़्त मेरा बचपना !!! जाता ही नही.....आप, इंदु अंटी....ब्लोग ही दुनिया का सफ़र आप लोगों की अंगुली थाम ही चालू किया था.... वैसे राज़ की बात बताइये,आज के दिन काहे कॉलेज!!!!
फ़ारुख शेख की याद को नमन!
बहुत बढिया लिखा है !
वैसे लिखना हम भी यही चाहते थे कि हम तो दाद देना ही भूल गये। :)
बहुत उम्दा !
waz missing u on d post... :) LOL
बड़े दिनों के बाद आपकी पढ़ी है। उम्दा।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-03-2017) को "सरस सुमन भी सूख चले" (चर्चा अंक-2922) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Bhut pyara h mza aa gya pdh KR
बहुत खूब।
शेख साहब के बारे में सटीक जानकारी।
Sunder
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