शनिवार, 31 दिसंबर 2016
मंगलवार, 5 जुलाई 2016
ईद मुबारक
बहिनो! क्या बताऊं, तुमसे बांट बूंट कर हल्की
होना चाहती हूं: मियां मौलवी साहब की पांच बेटियां अस्मां, सीमा, रेशमा, गुड्डी, मुन्नी. अगले दिन ईद और मियां
मौलवी साहब के पाजामे को टेलर मास्टर ने लम्बा कर दिया. मियां साहब ने अस्मा को बुला
ताक़ीद की “ बिटीया!!! ज़रा अब्बू का पाजामा एक बालिश्त छोटाकर देना सुबह को ईद है” “ अब्बू ! मेरा तो सूट नही सिला!! आपको पजामे की
पडी है” मियांसाहब रेशमा के पास : “ बिटीया!!! ज़रा अब्बू का पाजामा एक बालिश्त छोटाकर
देना सुबह को ईद है” “ अब्बू मुझे नही आता ये सब!” मियासाहब सीमा के पास: “ बिटीया!!! ज़रा अब्बू का
पाजामा एक बालिश्त छोटाकर देना सुबह को ईद है” बारी बारी हर बेटी ने मायूस किया. मियासाहब
ने अशर्फी टेलर को चंद रुपये देकर काम निब्टाया.
पाजामा घर पर लाकर रखा और सोने की
तैयारी. अस्मां अपने कपडों से फारिग हुई तो याद आया कि अब्बू के साथ कितना बुरा बर्ताव
किया उसने.उसे अभी ही उठ कर माफी तलाफी करना चाहिये. अब्बूतो खैर सो भी चुके. रात भर
पछतावे की आग मे जलने से बेहतर है, अभी ही मशीन लगा पाजामा एक
बालिश्त छोटा कर दिया जाये. वह अब्बू जो उसके लिये हर वक़्त एक साये की तरह साथ रहे वह
उनके साथ ऐसा कैसे कर सकती है!!. वह फौरन बिस्तर छोड भागी, अब्बू का पाजामा छोटा कर
चैन की सांस ली और बिस्तर पर लेट गयी. सीमा, सबसे फारिग हो दिन भर की
गुस्ताखियां याद करने लगी. अब्बू के साथ की गयी जब खुद
की हरकत याद की तो अफ्सोस से जी भर गया अपने किये कराये के मलाल को कम करने के लिये
फौरन बिस्तरे से परे हो उठी और सिलाई कमरे में रखे अब्बू के पाजामे को एक बालिश्त छोटाकर
के ही दम लिया. अल्लाह!! बेटियां शायद इसी दिन के लिये अल्लाह की रेहमत समझी जातीं है, रेशमा को भी नींद कहां आने
वाली थी!!! ज़माने को सिल सिला के देती हूं लेकिन
एक अपने अब्बू के कपडे ही नही सिल पा रही!!! वह फौरन बिस्तर छोड भागी, जल्द अज़ जल्द पाजामे को एक
बालिश्त छोटा किया, और अपने एक अच्छी बेटी
होने के मुगालते में पानी डाल सोने वाले कमरे में चली गयी. गुड्डी मुन्नी क्यों
पीछे रहती भला !! फौरन फौरन बिस्तर छोड भागी, दोनो ने बारी बारी एक एक बालिश्त
कम कर अपने फरमाबर्दार होने का फर्ज़ निभाया और ग्रे कलर के खूबसूरत पाजामे को सही करने
का भरम पाल सोने के कमरे में आ गयी.
ईद
की सुबह. अब्बू फज्र की नमाज़ से फारिग हो अपना लिबास बदलने की तैय्यारी करते करते चिल्ला
रहे थे “ अरे लड्कियों! मशीन पर रखी ग्रे चड्डी के नीचे उसी रंग का पाजामा रखा था !!! क्य तुम में
से किसी ने उसे देखा है??? “
शुक्रवार, 24 जून 2016
पहला रोज़ा
याद नही उम्र कितनी थी, पांचवे का इम्तेहान दिया था और अब तक
रमज़ान में इफ्तारी खाने का ही लुत्फ उठया था कि रमज़ान के छट्वें रोज़े के दिन अम्मा
दादी अम्मा के साथ लोगों की फेह्रिस्त बनाती बरामद हुईं. अप्रैल का महिना, ऐन मेरी सालगिरह के
एक दिन पहिले. स्कूल अभी खुले नही थे, लिहाज़ा मदरसा और पेटिंग की क्लास के बाद
चंग-अष्ट की मेह्फ़िलें और चम्पक, नंदन के साथ बीतती ख़ाली ख़ाली दुपहरें. बुज़ुर्गों के काम
में ज़्यादा दख़लअंदाज़ी की इजाज़त तो थी नही सो पता भी नही था कि क्या होने जा रहा
है. पडोस की रफ़ीक़ा ख़ालाजान के साथ दादी अम्मा जो जो मश्विरे कह सुन रहीं थी उससे
तो यही अंदाज़ लगाया जा सकता था कि दूर दराज़ की किसी कुआंरी फूफीजान या ख़ालाजान की
मंगनी ही होनेवाली है. तभी बडी अम्मा ने घुडका: “ज़्यादा इतराओ नही! कल तुम्हारा ही
काम होगा” या अल्लाह! मेरी मंगनी!!! ख़ौफ के मारे कलेजा मुंह को आ गया! दूर दूर तक
मोहब्ब्त लुटाते भाइयों के बीच कहीं भी दुल्हे की ख़ौफनाक तस्वीर का तस्व्वुर भी
नही था, फिर ये
मंगनी!!!! अंदर के बाग़ी तेवर कोई जवाब तलब करते इंसाफ की ज़ंजीर हिलाते इससे क़ल्ब
ही अम्मा ने आकर बताया, “कल तुम्हारी सालगिरह भी है और पहिला रोज़ा भी.” जान में जान आयी
मेरी. बक़ौल दादीअम्मा, “दिन भर भूखे भिनभिनाना तो मेरा ख़ास शगल था”, सो मुझे कोई ऐतराज़ नही था, फिर यहां तो
पब्लिसिटी भी पूरी मिल रही थी, सो फख़्र से उडी उडी अडोस पडोस में भी गा आयी
मैं! “ मेरा पहिला रोज़ा है, फ़लानी तुम भी आइयो और ढमाकी तुम भी आइयो”
अगले
दिन पूरे जोश से सेहरी में जगाया मुझे. नेहला धुला अम्मा ने नीली अम्ब्रेला फ्रोक
के साथ पडोस की पिंकी बाजी की छोटी हुई पीली शल्वार पह्ना दी. (अस्ल में भाइयों के
कपडों पर डाका डालने वाली उम्र की वजह से अभी ज़िंदगी में शल्वारों की घुसपैट शामिल
नही हुई थी.) जल्द जल्द सेहरी खिला कर रोज़े की नियत करवाई गयी. बडी अम्मा ने ख़त्म-
वक़्ते- सेहरी नाक दबा कर बडा सा ग्लास पानी का भी हलक़ मे उडैल दिया. और सेहरी का
वक़्त खत्म हुआ. फज्र की अज़ान हुई, अम्मा ने नमाज़ के बाद क़ुरान हाथों में थमा दिया.
यासीन पढते पढ्ते जम्हाइयों को दबा कर जल्द ही फारिग़ हो बिस्तर में लुडक गयी.
एक
नींद निकाली और जले पैर की बिल्ली की तरह आदतन बावर्चीख़ाने का रुख़ किया. “ अरी!!
ये भूत की तरह यहां क्यूं मंडरा रही हो? रोज़ा है तुम्हारा!!!” बडी अम्मा ने डपटा तो ख़याल
आया कि रोज़ा है. खिसियाती हुई बाहर आयी तो बाजी ने टोका, “अरे! मेहमान आ गये हैं! ज़रा मुंह धोकर
कपडे बदल लो, नानीजान, मामूजान-मुमानी जान, चचा
चची सब के सब लोग ही आते होंगे, जल्द कंघा लेकर आओ तो तुम्हारी चोटियां बना दूं”.
मुझे बाजी का बाल खींच खींच कर चोटी बनाना सख़्त नापसंद था मगर उन्हें ना सुनने की
आदत नही थी, अभी रोज़े में ही धुनककर रख देतीं सो मैंने चुपचाप
चोटी करवाने को ही ग़नीमत जाना. इतने में अम्मा ने आकर बताया कि आज सब लोग मेरे
लिये तोहफ़े और ढेर से कपडे भी लाने वाले हैं. मैं थोडी सी ख़ुश हो गयी. आज मुझे
मेरी रोज़ की झाडू बुहारने वाली ड्युटी से भी छुट्टी मिल गयी थी. नानी के घर से
लाये गये कपडे पहिन मैं फिर आंगन से कमरे, कमरे से छज्जे डोलने लगी. दिल में खयाल आया,
रोज़ा है, कोई काम तो है नही, क्यूं न थोडी टीवी टावी ही देख ली जाये. प्लग
लगाया ही था कि सीआईडी की तरह फिर बडी अम्मी नाज़िल, “अरी कम्बख़्त! रोज़े में
टीवी नही देखते, रोज़ा मतलब नफ्स का रोज़ा. किसी क़िस्म का कोई एंनटरटैनमेंट नही.” उनकी घुडकियां
दिल पर ली भी ना थी कि सब के सब चचा, फूफा अपनी जतन से जमा की गयी बच्चों की फौज समेत
हाज़िर. गुडिया गुडिया का शोर मचाते कोई चूमचाट रहा था तो कोईं मारे ख़ुशी के गले
लगा रहा था. मेरा पूरा ध्यान साथ लाये तोहफों के झोलो पर था.
दिन का दूसरा पहर चालू. सूरज ऐन सर के ऊपर. ज़ुहर
की नमाज़ का वक़्त. मर्द हज़रात मस्जिद मे नमाज़ अदा करने गये. औरतों ने घर में पढी.
नानीअम्मी का फरमान जारी हुआ, “ बाई! रोज़दार बच्ची को हवा में लिटा दो”. चचियां, मुमानियां और
फुफियां नमाज़ के बाद बावर्चीख़ाने में अम्मां की मदद करने लगीं. नसीम आपा एक बडे से टोकरे में गर्मागरम पकौडे उतारने
मे लगीं तो क़ुरैश आपा पापड तलाई को बैठ गयीं, मुहल्लेभर से झारे पल्टे मांग इफ्तारी की
तैय्यारियां होने लगीं. पडोस की यास्मीन और तस्नीम बाजी पपिते और तरबूज़ काटने को मुक़र्रर
हुईं और छम्मी आपा लगीं ख़्वान परातों की सफाई में. हम उम्र सहेलियां घर के वाहिद कूलर ( जिसे
दादीजान “भड् भड ख़ूंटा” भी कहती थीं ) के
सामने मुझे लेकर बैठ गयीं. बबलीबाजी ने फौरन
मेहंदी घोली और मेरे हाथ पैरों में बेलबूटे लगा डाले. हम उम्र लड्कियों बालियों को
भी मेहंदी लगा वह किचन में गयी और मैं घडी की तरफ़ देख वक़्त का जायेज़ा लेने लगी. सारी
सहेलियां ठंडी हवा मे सो पसर गयीं इतने में पडोस के बच्चे भी आगये. भाई लोगो मे
पूछा, “रोज़ा तो नही लग रहा? बस चार पांच घन्टे और हैं फिर जी भर के खाना! बाहर
तो सिर्फ तुम्हारे रोज़े की खुशी में ही शामियाने लगे हैं,
टैरेस गार्डन की सफाई की है और जमातख़ाने से बडे बर्तन भांडे मंगवाकर गांव भर की दावत
और रोज़ाकुशाई का इंतेज़ाम किया है. सुनते हैं दुल्हेभाई और बडी बाजी के ससुराल वाले
तुम्हारे लिये नोटों का हार लाने वाले हैं!” मैं मारे खुशी के और फूल फैल गयी. दोपहर
की नमाज़ में खूब दुआ की कि ऐ अल्लाह! तू मेरा रोज़ा क़ुबूल फरमा!
दिन के चार बजने आये दोपहर ढलने की नमाज़ में
थोडा वक़्त होगा कि पडोस के मेह्नाज़ और गुल्नवाज़ आ धमके. मुझे डाले गये हारों को बाजी
ने क़रीने से एक ढेरी की शक्ल दे, चादर से ढांक दिया था. उन दोनो शैतानो की नज़र जब हार
पर गयी तो गुल्गेंदे की पत्तियां तोड वह उसके
फूलों की नमकीन जडे खाने लगे. लो तुम भी खाओ, कहने की देर थी और मैं भी खाने लगी,
एक जड खायी ही थी कि याद आया मेरा तो रोज़ा है! हाय अल्लाह !! अब क्या होगा!!! मेरे
चेहरे के रंग उडते देख दोनो आंखे तरेरते हुए बोले, “ होगा क्या! तुमने रोज़ा तोड
दिया है!! हम अभी सब से कह आते हैं शामियाने निकालो, तोहफे हमे दे दो,
खाना पकाना बंद करो, भटियारों घर जाओ, इफ्तारी मुहल्ले पडोस में
बांट दो, नोटोका हार फैंक दो कि लडकी रोज़ा तोड चुकी है!!!”
मेरा दिल बैठ गया और मै ख़ुद का तस्सवुर कोर्ट
मार्श्ल किये गये कैप्टन सा ही करने लगी. आंखो से आंसू की बूंदे छलक पडी और जी में आया मैं ख़ुद्कुशी कर लूं. इतने में उन दोनो
का बडा भाई “ शाहनवाज़” जो उम्र में हमसे कोई
साल दो साल बडा होगा आया और रोने का सबब पूछ्ने लगा. मै कुछ कहती उससे पहिले वह दोनो
उसे नमक मिर्चे लगा सब कह गये. उसने गौर से सुना और मुझे समझा के कह्ने लगा,
“जाओ! दौड कर गुस्लख़ाने मे जा कर कुल्लियां कर लो और तौबा कर लो,
भूल में तो सब माफ़ है” मैं फौरन तौबा करती हुई गुस्लख़ाने की जानिब दौड गयी,
वापस आयी तो दोनो शैतान फिर बोले, “ अॅल्लाह मियां
तो ठीक हैं , तुम दुनिया को क्या जवाब दोगी!!! हम अभी सब से बोल
आते हैं!” शाह्नवाज़ ने आंखे तरैरी और बेंत दिखाते हुए उन्हें धमकाया,
“ ख़बीसों! आज सुबह हदीस की क्लास मे आलिम साहब ने समझाया था न कि जो किसी के एक ऐब
पर पर्दा डालेगा, अॅल्लाह आख़िरत में उसके ऐबों से पर्दापोशी कर उसे
ज़लील होने से बचायेगा!!!” दोनो के दोने डर कर भाग ख़डे हुए.
मगरिब हुई, मैंने गोटे टका नया सूट पहिना.
लाल हाथों में चट मेहंदी रचायी, रोज़ा इफ्तारा गया, मुझे कपडे,
खिलौने और तोहफे सभी कुछ मिले. खिलौने मैने शाह्नवाज़ को दिखाये और इफ्तारी के बचे हुए
पापडों का टोकरा मैंने और शाह्नवाज़ ने कच्ची सीढियों पर साथ बैठ कर निबटाया.
गुरुवार, 24 मार्च 2016
फाग गीत
मेरे फाग भरे गीतों
को, अपने राग भरे स्वर देना
मीत! मेरे मीठे
सपनों को अपनी प्रीत का घर देना
बासंती मौसम में
बहकी मधुमासी सी हलचल में
मेरी सांसों के उपवन
को प्रीत पवन से भर देना
हर धडकन में बिछे
पलाश के स्वागत आतुर आलिंगन को
अपने हाथों मंथन कर
के प्रेम पलाश सा कर देना
प्रियतम मेरे हाथों
में जो निज सपनों की माला है
इसे समर्पण सेतु की
पहली गांठ का वर देना
परिचय की इन गांठो
को, परिणय के बंधन देकर
मेरे जीवन की संगत
पर, अपनी सरगम के स्वर देना
लोरी
सोमवार, 8 फ़रवरी 2016
चॉकलेट डे .......
एक के बाद एक
मेरी देह पर पड़ते
तुम्हारे गहरे नीले चुम्बन
जैसे ख़ुदा का
यक-ब -यक
किसी गर्म दिन को गले लगा लेना
और उन्हें महसूस कर
झरते मेरे आंसू
जैसे गर्मियों के बाद की
निहायत पहली बारिश
- लोरी
रविवार, 17 जनवरी 2016
जब इश्क़ तुम्हे हो जायेगा
सेहबा
जाफ़री
लिल्लाह! यह गोपाल भाई हैं!! मैंने देखा और
खूब ग़ौर से देखा, बचपन से लगा जवानी तक जिन गोपाल
भाई की, अपने भाई सी
ही सहचरी रही उन्हे इनती- गिनती के पांच सालों मे ही कैसे भूल सकती हूँ! पलकें
झपकायी, दुहरा-दुहरा और तिहरा-तिहरा कर; मगर दुविधा है कि मस्तिष्क का साथ छोडने को राज़ी नही!
वही गांव, वही बस अड्डा, वही मेरे जन्म के पहले से खडा नीम का पेड और वही पीपलेश्वर- महादेव का
मंदिर. जो अनहोनी
बात थी वह थी मंदिर के ठीक चरणों में कल-कल बहती नदी के बींचोबीच, कमर-कमर तक पानी मे खडे, पीताम्बर से अपनी गठीले देह को ढांके, माथे पर लाल चंदन लगाये, भक्तिभाव से
ओतप्रोत गोपाल भाई.
नयी ब्याही “मैं” बार बार पलट उन्हें
आश्चर्य से तांक रही थी. मेरे बिल्कुल नये नवेले पति के ‘पतीत्व’ का पारा चढे ही जा रहा था. “क्या
देख रही हो उसे!” आख़िरकार उनके अंदर के पति ने डॅंपटा और मेरे अंदर की निरी पुरातन
पत्नी ने भी गर्दन न पलटी वरना कोई और समय होता तो रपट पर बनी ऊंची सी चौकी पर बैठ, छोटे छोटे कंकर मार, गोपाल भाई
का जीना हराम किये देती मैं! पूछती, “ मियां! अब
ये पीपलेश्वर महादेव के साथ कौनसी आंखमिचौली हो रही है!”
बस-अड्डे से
घर तक का फ़ासला कोई बीस मिनीट का होगा. इन बीस मिनटों मे पतिदेव के मन का मौसम तो
ग़ारत हो ही चुका था पर मैं! अतीत के बीस साल एक ही सांस मे जी गयी थी.
गोपी (गोपाल), गजु (गजेंद्र) और गुड्डू (इरशाद) गांव के ‘थ्री-जी’ कहलाते थे. गांव की एकमात्र
प्राथमिक शाला से लगा उच्च्तर माध्यमिक विद्यालय तक साथ-साथ पढे तीन हीरे. बचपन के
साथी और घनिष्टता इतनी कि इसकी रोटी उसके घर बना करती थी. साढे सत्रह और साढे
अट्ठारह का पहाडा पढते इनके ज़हन शरारती ऐसे कि गांव भर की नाक मे दम. इनके इम्तेहानों के नतीजों कि फ़िक्र इनसे ज़्यादा गांव के बडे बूढों को होती
थी. यह उस दौर की बातें हैं जब गांव तकनीकी तुतम्बों से आज़ाद हुआ करते थे.
गोपी भाई के पिता गांव की सबसे बडी किराना
दुकान के मालिक, गजु भाई के पिता के अपने वेयर
हाउसेज़ और गुड्डू यानि मेरा अपना वयस मे मुझसे छ: साल बडा भाई; गांव के मिडिल स्कूल के बेहद ईमानदार, मध्यमवर्गीय मास्टरसा’ब की सबसे
बडी संतान. सब के सब मेरे पिता के शिष्य.
प्यार से भोले मास्टर सा’ब इन्हें
अपनी मानस संतान कहा करते थे. गजु भाई ब्रह्म्मण थे. हमारी पीढियों के सम्बन्धी. मेरी दादी ने कभी इनके दादा को राखी बांधी थी
और हमारी पीढियां इस सम्बन्ध को जस का तस निभाती थीं. गोपाल भाई “वैष्णव वणिक
संतान” पर इनके पिता जब तक जिये मेरे पिता का सम्मान उन्होने अपने स्थान से उठ कर
ही किया. इम्तेहान चाहे हफ़्ते भर के हों या पंद्र्ह दिन के, सब के सब इतने दिनों दुतल्ले पर बने पिताजी के कमरे मे ही डेरा रमाते थे.
उठना-बैठना, खाना-पीना, सब कुछ मास्सा’ब के ही अधीन. जाने कैसे नास्तिक गांव की संतान थे ये कि जब सारे बडे शहर
राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के दंगों मे सुलग रहे थे, ये तीनों गांव की अमरायी में अपनी
मित्रमण्ड्ली के साथ क्रिकेट खेला करते थे.
भगवान, अल्लाह, क्राइस्ट या वाहेगुरु से इन्हें
कोईं दुश्मनी हो ऐसा नही था किन्तु इनके नाम पर किये ढिंढोरे ढकोसले से इनकी चिढ
शाश्वत थी. उम्र कोईं आठ की रही होगी, मां ने एक
को डपट कर जुम्मे की नमाज़ को भेजा तो सफ़ेद
क़मीज़ पाजामा पहिन, टोपी लगा, तीनो ही साथ हो लिये. मौल्वी साहब ने जैसे ही “अल्लाहु-अकबर” कहा, जाने किसके ज़हन मे शरारत कौंधी, एक ने एक को
धक्का दिया, दूसरे ने दूसरे को! पूरी सफ़ औंधी
कर आये और जो अम्माओं ने घर से निकाला तो गुरू द्वारे मे कडाप्रसाद खा कर सो रहे.
पंडितों, मुल्लाओं और गांव भर के बाबाओं को
सताने के लिये तो ढोल जैसे पिटते देखा है इन्हें मैंने.
चौमासे चालू होते ही गजु भाई के नाश्ते के अण्डे
गुड्डू भाई
के फ़्रिज मे घर बना लेते और गोपी भाई जो अण्डों को हाथ तक न लगाने की
कसम लिये थे, बडे लाड से मुझसे कहते, “ग़ुडिया! तुम
जो हमे एक अण्डा खिला दोगी, हम तुम्हे
चार आने देंगे.” चार आने मे उस वक़्त दुनिया ख़रीदी जा सकती थी, लिहाज़ा छीलछाल, नमक लगा, मैं उन्हें अपने हाथों से अण्डा खिला दिया करती थी और
जब फ़्रिज अण्डों से ख़ाली हो चुकता यह ‘बदमाश-कम्पनी’ चौराहे पर पडे, उतारा किये
अण्डे भी उठा लाती और उनके भी आमलेट बना कर खा जाया करती थी.
नुक्ते के खाने को शादी के खाने सा ही
आन्न्द लेकर खाना, वह भी बिन बुलाया मेह्मान बन कर! इनके लिये आम बात थी. अमावस पूनम के उतारे हों या ऊर्स
के टोट्के, भूत जिन्नों के लिये फेंकी
मिठाइयां हो या बिमारियों को दूर करने आये सय्यद साहब की शीर्नी, सब इन तीनो के प्रिय आहार थे और जान बूझ कर अपनाये गये! शनीचरी अमावस, नौदुर्गा के नौ दिन और भूतडी अमावस के राह पडे भूरे कद्दु, कितनी बार साफ कर, छीलछाल, अंधी बूढी राहतचची की रसोयी में
भून, न केवल ख़ुद खा पका गये थे बल्कि
उन्हे भी खिला कर ना जाने कितनी दुआयें समेट लीं थीं. नदी किनारे चलती, राह पडे अण्डों की पार्टी तो कईं दफ़े, ख़ुद मैंने इनके साथ उडायी थी, और एक बार
तो अम्मी के जूते भी खाये थे.
सोंच मे डूबते उतरते कब गेंदे के फूलों वाली बावली के पास बने जिन्न
बाबा के डेरे तक आ गयी एह्सास ही ना हुआ. वहां जिन्न बाबा को बादाम लगाते जब
गोपी भाई की पत्नी गायत्री भाभो को देखा तो दंग रह गयी मैं! यह वही गायत्री भाभो
हैं जिनसे गोपी भाई के विवाह का एकमात्र कारण उनका किसी भी अंधविश्वास में लिप्त
ना होना ही था. वरना कैसी कैसी सुंदर सुशील और धनी वणिक-कुमारियां वर माला लेकर
खडी थीं इस अंक गणित के व्याख्याता के लिये! न!! रहा ना गया मुझसे! आख़िर मेरी अपनी
सगी भाभी से ज़्यादा लाड वसूले हैं मैंने इनसे! “ सब ठीक तो है ना भाभो!” पास पहुंची तो हठात पूछ बैठी मैं! कहाँ
ठीक! भाभो तो मुझसे लिपट ऐसी रोयीं मानो! जन्मों से भरा बादल बरस पडा हो. “ पूरे छ:
साल में ह्मारी गोद हरी हुई गुडिया! और
लड्कन के जीने की आस जाती है, चार माह के
तोहरे लाड्ले बबुआ को हिपेटाइटिस-बी हुआ है”
मेरे पैरों से ज़मीन ही खिसक गयी! वहीं डेरे के चबूतरे पर ही उन्हें लिपटा फिर अतीत मे खो गयी. उन दिनो फ़सल ना हुई
थी, कटाई मज़दूरों को ज़्यादा काम ना था, गांव के गरीब से उडन चाचा का बेटा भूख के वजह से
सूखामेली (कुपोषण) का शिकार हुआ तो धैला-दुअन्नी तक ना निकली थी गांववालों के पास. तब गोपी भाई ने ही अपना
गणित भिडाया था. गांव भर की विवाह योग्य दीदियों और आपाओं को पकड कर शीघ्र विवाह
के दान करवाने लगे थे वह! सोमवार को एक सौ
बीस ग्राम चने की दाल और दूध, मंगल वार को
गुड और उडद, बुधवार को घी और ऐसे ही शनिवार आते आते ढेर लग जाता था दान की
हुई वस्तुओं का! सब का सब उडन चचा के घर! लडका देखते ही देखते हरा भरा होने लगा था
और अब तो सुना है कि इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है शहर में. “क्या गरीबों के बच्चे मान मनौव्वल के नही होते गुडिया!” उसे देख देख गोपी
भाई कह्ते थे. रब्बा!!! ये पानी मे खडा, जाने किस मंत्र का पूरी निष्ठा से जाप करता पुरुष और जिन्नबाबा को बादाम
लगाती स्त्री क्या वही मनुष्य हैं जिनकी वजह से गांव के म्लेच्छ मज़दूर उडन-सिन्ह
के मान मनौव्वल के बेटे जग्जीवन को जीवन मिला था!
“अल्लाह के
घर देर है भाभो! अंधेर नही!” मैं उन रोती हुई को सह्लाती हुई अपने पति को भी
भूल गयी थी पल भर के लिये. “आपने और गोपी भाई ने तो अंजाने मे भी किसी का बुरा नही
किया! बबुआ को फिर काहे कुछ होगा!”
उन्हें आस बंधाती जब अपने घर आयी तो क्या
देखती हूँ, घर के बाहर बहुतसे जूते-चप्पल, इत्र अगर की खुश्बू और सफ़ेद क़मीज़ पाजामे मे बुर्राक़ सा नूर बिखेरता
मेरा निरा नास्तिक भाई हिदायत करता
कह रहा है, “तू मर्दाने से मत निकलियो! वहां आयते-करीमा का वज़ीफा चल रहा है, अपने गोपी का लल्ला ठीक हो जाये बस!” मेरी आंखे दुआ मे रो रही थीं और मेरे
ज़हन मे किसी अंजान शायर का कलाम गूंज रहा था :
हर बात गवारा कर लोगे,
मन्नत भी उतारा कर लोगे
तावीज़ें भी बंधवाओगे
जब इश्क़ तुम्हें हो जायेगा
जब इश्क़ तुम्हें हो जायेगा….
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