नत्थे भाई उमर में हमसे कोई सात आठ साल बड़े होंगे और भाभी बेगम पूरे दो साल छोटी. अब्बू कह रहे थे, नत्थे भाई एक और भाई के साथ जुड़वां पैदा हुए थे. वक्त बीता इनकी नत्थी वाला भाई तो अल्लाह को प्यारा हो गया निशानी के तौर पर यही रह गए और इनका नाम. अब्बू के दूर के रिश्ते की खलेरी (मौसेरी ) बहन के बेटे , शैखानी बुआ के इकलौते फ़रज़न्दे सालेह (सुपुत्र) और हम बच्चो की जान. "लेओ हम कबीट की चटनी बनाये थे, तो रख लाये, साथ बैठ, गप लगा, खायेंगे; तुम्हारा भी मुह खुल जाएगा." भाभी बेगम ने कटोरदान से रोटी निकाली, साथ लाये डिब्बे से चटनी और छोटे छोटे कौर बना मेरे मुह में डालने लगीं. सच ! मेरे मुह से खाते ही दुआ निकली, "अल्लाह आपको हर दौलत से नवाज़े भाभी बेगम!:" उनके हाथ की चटनी, गोयाँ जन्नत की कोइ अज़ीम ने'मत! "कूँ खाँ! बीमार पड़ के आ जाती हो हमाय पास! " इतने में ही हाथों में गुलाबजामुनो का कुल्ल्हड़ थाम नत्थे भाई चले आये. भाभी ने फ़ौरन सर ढांक हल्का सा घूँघट ले लिया, गोया नत्थे भाई कोई सड़क के आदमी हो. " ये क्या भाभी बेगम! आपको ब्याहे अब सात सालों से ऊपर होने आये! तीन गोल मटोल बच्चों की अम्मी हो गयीं आप! और आज भी नयी ब्याही दुल्हनों सी शर्माती हैं" मैंने बुरा मुंह बनाया. "तो बीवी! शर्माए ना तो क्या करे! मियाँ हैं हम उनके! तुम तो गुडिया ! कुछ क़ायदा नहीं जानतीं! अल्लाह जाने तुम्हारा मियां कैसे निभाएगा !!!" 'हे हे! मैंने दांत निकाले, इसीलिये तो इत्ती आसानी से नहीं मिल रहा!!! क्या हर कोई मियाँ हमारा जोड़ीदार हो सकता है!" हमने भी नत्थे भाई पर दाँव फेंका. "बस तो कीजिये आप! खामख्वाहं बच्ची को..." भाभी बेगम पानी लाने के बहाने अन्दर चली गयीं.
"और खाँ! क्या चल्ला है आजकल!" नत्थे भाई ने ज़ोर से मेरे हाथ पे हाथ मारा, मेरा वही हाथ जो दो साल पहले उतर गया था, साल भर पहले फ्रेक्चर हुआ था और अब जिसमे सलाइन लग लग कर शदीद तकलीफ होने लगी थी. " अल्लाह नत्थे भाई! कुछ तो लिहाज़ कीजिये!!! " मै आदतन चीख उट्ठी. वाकई मुझमे सब्र का माद्दा बिलकुल नहीं था और दर्द बर्दाश्त करने का तो बिलकुल भी नहीं. मैंने पास पड़ा तकिया उठा उन्हें दे मारा और बड़े तमीज़ से फोर्मेलिटी निभाई, "आप कैसे हैं." तकिया नत्थे भाई को न लगते हुए बावर्ची खाने से पानी लाती हुई भाभी बेगम पे. मैंने झट करवट ली और रज़ाई ढांक ऐसे पड़ गयी गोयाँ कोई मुर्दा हूँ और नत्थे भाई! कानो में अंगुलियाँ दे भीगी बिल्ली बन अपनी उस दुल्हन के सामने घुटनों पर बैठ गए अभी अभी ही जिनकी शर्म के वह कसीदे पढ़ रहे थे. " हाँ! तुम्हारे अब्बू की ज़रखरीद हूँ न! मार लो, तकिये क्या फतरें (पत्थर) मार लो!" भाभी बेगम ने घूँघट नीचे कर शर्म का इज़हार किया और आवाज़ ऊंची कर नाराजगी का. "अरे हो तो उसी आदम की औलाद न! महज़ जिनके शौक़ की खातिर ही अल्लाह ने औरत बनायी थी! " वह मियाँ से लड़ने पे आतीं तो अक्सर शुरुआत आदम अलस्सलाम से किया करतीं थीं. " हाँ! और तुम! बदज़ात कौम ! अरे औरत की वजह से ही आदम जन्नत से निकाले गए और काबील ने हाबील का क़त्ल किया!" भाई जान ने भी निहायत मुहज्ज़ब अंदाज़ में जड़ा. "क्या कर रहें हैं आप लोग!" मैंने मासूमियत से लिहाफ से गर्दन निकाली. जवाबन उन्होंने मुझे ऐसे घूरा जैसे झगडे की ज़िम्मेदार मै हूँ. "अब तुमसे का कहें गुडिया! ये आदमी ऐसे ही हमाई जान खाता है!!" भाभी बेगम की आँखों में एक भी आंसूं नहीं था अल्लाह जाने वह क्या पोंछते पोंछते बोली. "तुम का कहो! हमैयी कहें, हम कुछ करलें ये औरत खुश नहीं रह पाती, "अरे! तो आप डॉक्टर थालिया से मिले, ये देखिये इसमें लिखा है अगर बीबी खुश नहीं है तो आप मिलें." साइड टेबल से अखबार उठा निहायत भोलेपन से मैंने उनकी तरफ बढाया. "चुपो कम्बख़त! वैसी वाली बात नहीं." अपने तीन तीन बच्चों का ख़याल कर भाभी बेगम ने अपना घूँघट और नीचे सरका लिया. 'अरे मुग़ल बच्ची होकर इस आदमी को सहन कर रई हूँ, कित्तेयी साल हो गए हैं!' भाभी ने अपने बर्दाश्त का ज़िक्र किया. ' अई हई! देखना जरा, ये बर्दाश कर्र्यीं हैं, अरे! सय्यदों का सबर (सब्र) ले रई हो! देखना एक दिन टूटेगा, मुझ भोलेभाले का सबर तुम पर!' नत्थे भाई अच्छी अच्छी लडाका औरतों पे भारी थे. 'हाँ! हाँ! कल्लो खूब लड़ाई कल्लो! ज़न्खों जैसे हाथ नचा नचा के हमसे खूब लड़ाई कल्लो!' भाभी ने फिर घूँघट सरका अपने भले घर की होने का सबूत दिया और मुंह से फ़िज़ूल की सिसकियाँ निकालने लगीं. 'अरे! ज़न्खा होगा तुम्हारा बाप! ये तीन तीन बच्चे क्या मैके से लायीं थीं. "मेरे बाप को अनाप शनाप कहा" भाभी मुझ लिहाफ में पडी से लिपट हिल हिल के रोने लगीं. "अरे! पहलवान थे वो! अच्छे मियाँ पहलवान! " अभी होते ना तो ऐसा धोबी पाट देते कि मिया ज़िन्दगी भर याद रखते!" भाभी को उनके वालिद मरहूम की बेपनाह याद आने लगी थी.और मै! उनका वज़न अपने टूटे हाथ पे बर्दाश्त कर हिसाब लगा रही थी, वाकई, इनके अब्बू पहलवान थे.
'अल्लाह!' मैंने दिल ही दिल में दुआ माँगी, 'ये किसी तरह काबू आ जाएँ' कि अचानक नत्थे भाई का मोबाइल बजा और नत्थे भाई भुन भुन करते ड्योढी पार कर गए और भाभी बेगम मेरे पलंग के सरहाने बैठ, गुलाबजम्नो का कुल्ल्हड़ साफ़ करने में मसरूफ. "बड़ा ज़ुलुम हुआ आपके साथ तो भाभी बेगम!" मुझे बिस्तर पर पड़े पड़े फिर शरारत सूझी. "अरे ! देखियो तुम! ऐसा मज़ा चखाउंगी कि ये तो ये, मेहल्ले का कोई मर्द अपने औरत से ना लडेगा! " अल्लाह! मेरा दिल धडका. करने क्या जा रहीं हैं आप!" मुझे लगा, पता नहीं क्या होने वाला है. "इनोको बिस्तरे से ही अलग कर दूंगी!, तुम भी बीबी! याद रखियो, एसई करना मियां ज़ादा लडूं लडूं करे तो!" उन्होंने मेरा नोलेज दुरुस्त किया. " अल्लाह!" मैंने धडकते दिल से दरवाज़े की तरफ देखा, शुक्र है अम्मा घर में नहीं थीं. वर्ना मुझे वह धप पड़ते कि नानी दादी याद आ जाती. मै अब उनके और नज़दीक खिसक आयी, "एक बात कहूं!" भाभी बेगम कुछ कहने के पहले ही लाल गुलाबी हो गयीं, बेहद लजाती सी बोलीं "चुप रहो बिन्नो! तुम्हारा नालिज खुद ब खुद दुरुस्त हो जायेगा. " अल्लाह! ये शादीशुदा औरतें भी ना! न मालूम कहाँ तक की सोंच लेती हैं. असल में मै जो कहने जा रही थी वह नत्थे भाई का बेहद एम्बीगुअस सवाल था, जो वो एक दफे तन्हाई में दादी अम्मी से पूछ रहे थे, "आप ही बताइये, कान में अंगुली डालें तो किसको मज़े आने हैं, अंगुली को कि कान को! " जवाब में दादी अम्मी ने पास पडी चप्पल उठा दे मारी, "ठेर जाओ! अभी तेरी कान और अंगुली निकाले देती हूँ! " मगर मुझे अपना तमाशा कतई मंज़ूर न था. मैंने सवाल मुल्तवी किया.
पांच बज गयी थी. मम्मा के स्कूल से आने का टाइम हो गया था. अब्बू अभी भी नहीं आये थे. "गुडिया ! चाय बना लूं, हम तो बिन्नो चाय बगैर गुज़र नहीं कर सकते. " मेरी भी बना लियो! बाहर बाइक रुकने की आवाज़ और नत्थे भाई के साथ मम्मा. " हम लिवा लाये मुमानी बेगम को." नत्थे भाई देवडी में से चिल्लाये. " जे देखो! इमेज बिल्डिंग तो कोइ इनसे सीखे!" मम्मा के घर में दाखिल होते ही भाभी बेगम का घूँघट नीचे हो गया, हौले से शर्माते हुए उन्होंने मम्मा को सलाम किया और लजीली मुस्कराहट से नत्थे भाई को देखा. मम्मा निहाल हो गयी, "नत्थे! पूरी दुनिया देखने को बैठी थी कि मै तेरा ब्याह कहाँ करूंगी. तेरी बीबी की शक्ल में अल्लाह ने मेरी लाज रख ली! व' तो इज्ज़ोमंतोशाओ, व' तो ज़िल्लो मन्तोषा!" (वह ही इज्ज़त और ज़िल्लत का देने वाला है) मम्मा ने आसमान की तरफ हाथ उठा भाभी बेगम को गले से लगा लिया. " नत्थे भाई यों मुस्कुराये मानों बड़े खुश हों. भाभी ने जल्दी जल्दी खाना बनाया और मम्मा ने साड़ी चेंज कर असर की नमाज़ अदा की, "तुमने पढी! " मम्मा ने नत्थे भाई को घूर के देखा. "बस! अबी पडल्ल्ये हैं न!" नत्थे भाई सकपकाए,और भाभी बेगम हंस पडी, "खूब खिखिया रही हो, हम कहें तुमने कित्ती पढीं!" नत्थे भाई ने मम्मा का ध्यान भाभी बेगम पर डाला, जवाब में भाभी बेगम ने ऐसी निगाहें नीचीं की गोया नत्थे भाई के सामने उनके गले से लफ्ज़ ही न निकलते हों! , नत्थे कित्ता ख्याल है उसे तेरी इज्ज़त का, और एक तुम हो जाहिलों जैसे बेगम से लड़ रहे हो!" मम्मा ने जुमला जड़ा. मै मुस्कुरा कर रह गयी, सुबह से उनकी इज्ज़त का फालूदा बनते जो देख रही थी.
सुनो! तुम दोनों हो ना, गुडिया के पास! मै और तुम्हारे अब्बू जरा घूम आयें ममा ने चाय का कप ठीक आँगन की सीडियों पर रखते हुए कहा. " ममा! आप मत जाइए! " मैंने ममा का पल्ला थामते हुए कहा. सुबह से इन दोनों मियाँ -बीवी का कतई गैर रोमांटिक ड्रामा देख मै सख्त बोर हो गयी थी, डर था कहीं शादी का इरादा मुल्तवी ना कर बैठूं. कुत्ते बिल्लियों की तरह इन्हें लड़ता देख कौन कहेगा कि इन दोनों की मोहब्बत वाली शादी थी. (जो ममा ने बड़ी महनत से सेटल करवाई थी.) " बेटी! मेहता अंकल अस्पताल से आ गएँ हाँ, अभी देख कर आतें हैं." ममा ने अपनी मजबूरी बतायी और बाहर. नत्थे भाई दुछत्ती से टहल नीचे आये ही थे कि वह लगी कप को लात और वह गया कप भाभी बेगम के पाले में, दो टूक!!! "अल्लाह! आँखें कहीं गिरवी रख आये क्या! शाम पड़े कप टूटना अपशकुन होता है !" "हाँ! तुम कभी भी कुछ भी करो, सब शगुन और हम!!" " तोड़ो! कौनसे हमारे दहेज़ के हैं! " चुप रहना जानती कहाँ थी भाभी बेगम. "अरे ! तुम्हारे वह कंजूस भाइयों ने चूहे की टांग तक तो दी नहीं , कप क्या देंगे! नत्थे भाई ने जड़ा. "क्या! मिया! हद में ही रहना अपनी, अरे! एक इशारे पे' घर भर देंगे, एक नहीं पूरे ग्यारह हैं, शब्बन, लल्लन, लड्डन, अच्छन, छप्पन, सत्तावन समेत पूरे ग्यारह नाम गिनवाए भाभी बेगम ने. अरे जाओ जाओ! कहते हुए नत्थे भाई ने आदतन हाथ पैर नचाये, कि क्या देखती हूँ! पन्हरी पर रक्खा एलोवेरा का गमला झट नीचे नत्थे भाई के पैर पे. या अल्लाह! भाभी बेगम सब छोड़ भागीं, डिटाल कहाँ है, कपास कहाँ है, कैंची लाओ, गोज् पीस लाओ! अल्लाह मियाँ! आग लगे मेरी ज़ुबान को! किसी की जान लेके कटेगी ये! पानी पिलवा दो, अल्लाह! ज़्यादा लग गयी जी! ऐ अल्लाह! इनके कुछ न हो, बदले में तू मुझ पूरी को उठा ले. आँखों से ज़ार ज़ार आंसू बह रहे थे, स्यापे और मातम का आलम ये था कि लगी नत्थे भाई को थी और वही भाभी बेगम का सर थाम उन्हें चुप करा रहे थे, "आराम से मेरी जान! कुछ नई होगा!!! घबराओ मत! सब सही हो जाएगा!!" नत्थे भाई को सम्भाल बेडरूम में रख आयीं भाभी. दूध, दही, दावा दारू, खाना पानी सब का सब इस मोहब्बत से बेडरूम में जा रहा था . मुझे लगा कि हल, मन, स्किनर, हर्लाक, वुन्ट और कोईं भी बड़े से बड़ा सायकोलोजिस्ट भी भाभी के नेचर पर कोई नतीजा नहीं निकाल सकता था. किस मोहब्बत और अपनाइयत से भिडीं थीं भाभी बेगम!
मैंने ज़रा झंका, नत्थे भाई के पैरों की मालिश करते करते ऐसी मीठी मुस्कराहट थी भाभी बेगम के चेहरे पर कि लिल्लाह! कोई भी शायर रीझ जाए! मैंने सुना, बड़ी तहज़ीब से शर्माती शर्माती कह रहीं थी भाभी बेगम! नायटी उईटी तो लाये नहीं हम! ओह्ह! मुझे बेसाख्ता उनकी बिस्तरे वाली क़सम याद आ गयी. मै खिलखिला पडी और ज़ोर से आवाज़ लगा उन्हें आगाह किया: "भाभी बेगम! दरवाज़ा भिड़ा लीजिये ,प्यार अंधा होता है पड़ोसी नहीं.