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बुधवार, 1 अगस्त 2018

मीना: एक दर्द भरा नग़्मा


  
“मीना” हिंदी फ़िल्मों की “ट्रेजेडी क़्वीन”. “मीना” जैसे रब की सबसे मुकम्मल तख्लीक. “मीना” जैसे स्याह आसमान की क़िस्मत में आया कोई चौहदवीं का चांद; “मीना” जैसे बारिश की भीगी शाम ख़िडकी पर गूंजता बूंदों का जलतरन्ग. लिल्लाह! एक नाम और ख्वाहिशों का इतना लम्बा भीगता सा जंगल, तिस पर बक़ौल मीना:
“तुम क्या करोगे सुन कर मुझसे मेरी कहानी
बेलुत्फ़ ज़िंदगी के क़िस्से हैं फीके फीके”
    हाँजी! वही एक नाम, ज़िंदगी को जिस पर कभी रहम नही आया और क़ुदरत की शतरंज के अनदेखे ख़िलाडी ने जिसके खाते में घात और मातों ले अलावा कुछ नही लिखा वही मीना जिस पूरेपन से जीं और ज़िंदगी की बाज़ी को जीत इस जहाँ को तन्हां छोड कर चली भी गयीं, उसी मीना की जगह आज इतने तवील अरसे में भी कोई नही ले पाया; ये कायनात के निज़ाम पर क़ुदरत के क़ब्ज़े का बेजोड नमूना नही तो और क्या है!
    हिंदी सिने इंडस्ट्री उन दिनों अपने शबाब पर थी और मीना के बचपन ने बस आंखें खोली ही थी कि वक़्त, भूख और ग़रीबी की ज़रूरतों ने मीना को नन्हें कलाकार के रूप में इंडस्ट्री की देह्लीज़ पर ला कर खडा कर दिया. और फिर 1 अगस्त 1933 में जन्मी बेबी माह्जबीं के ख़ून में नानी हेमसुंदरी के पारसी-रंगमंच की तेह्ज़ीब क्या ज़िंदा हुई इंडस्ट्री में उनका नाम ही बदल गया. मां प्रभादेवी और अब्बू अली-बख्श की नूर चश्मी अब  बतौर नायिका (उम्र 13 साल, फिल्म: एक ही भूल) मीना कुमारी के नाम से जानी जाने लगीं. जब निर्देशक विजय भट्ट साहब ने उन्हें यह नाम दिया था वह भी नही जानते थे कि मोर पांख सी नज़ाकत लिये, इस शीश-परी का यह चमकदार नाम इंडस्ट्री को चौंधिया कर रख देगा और रोशनियों की पूरब-पच्छ्म फैलती किरनें इसे नयी नस्ल की नयी कलाकार के रूप में वक़्त के माथे पर सूरज सी अफ़्ज़ां कर के रख देंगी. जी हाँ जनाब! यह वही मीना है एक के बाद जिनके खाते में बैजू बावरा, परिणीता, साहिब बीबी और ग़ुलाम, और काजल जैसी कालजयी फ़िल्में आयीं और बतौर अभिनेत्री उनकी झोली में एक नही कईं फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कारों की झडी सी लग गई. सही भी है मीना ने जिस किरदार को पर्दे पर जिया उसमें ज़िंदगी भर कर रख दी. आप बिमल मित्र जी की उपन्यास साहिब बीबी और ग़ुलाम, को ज़रा पढ कर तो देखिये जनाब! “छोटी बहू” के किरदार में मीना ख़ुद ब ख़ुद अपने आपको ज़िंदा कर लेंगी, “मोहिनी सिंदूर” पाने को लालयित भारतीय नारी हो या पति की राह देखती पतिव्रता हो, शराब पीकर मद्मस्त हुई और कंकाल बनी भागो हो या “पिया ऐसो जिया में समाई गयो रे..”लफ्ज़ों पर लजाती अदाकारा हो मीना हर ज़ाविये से एक नयी मीना हो देखने वालों को बांध कर रख लेती हैं.  उनकी उठती गिरती पलकों से बयां होती मोहब्बतों की शिद्दतें, और अदाओं से खुलते नज़ाकत भरे लब जब बेहद रोशन जबीं (मस्तक) से मिल, मान से सर उठाते हैं, इन अदाओं में एक सूफ़ियत नुमायां होने लगती है, दिल में कुछ गूंजता है तो बस उन्हीं का मिसरा, “हमसे इबादतों में कमी रह गयी अगर/ रह रह के अपने माथे पे” मारा करेंगे हम.” सच भी है! अदाकारी मीना के लिये इबादत से कम नही थी. परिणीता की ललिता’, काजल की माधवी’, पाकीज़ा की साहिबजान और चित्रलेखा की चित्रलेखा किरदारों की लम्बी फेहरिस्त और हर किरदार के साथ निखरती मीना की अदाकारी. लम्बी, थकाऊ और चूर कर देने वाली मेहनत, डाईरेक्टर के तकाज़े और उसके बाद उभर कर आते  मीना के रंग. शायद इन्हीं रंगों की चकाचौंध थी कि कमाल अमरोही जैसे नामचीन डाईरेक्टर भी ख़ुद को मीना के जादू से बचा नही पाये.मीना की धडकने गाने लगीं:
आगाज़ तो होता  है
अंजाम नही होता
जब मेरी कहानी में
वह नाम नही होता.
    दोनो ने अपनी अपनी ज़िंदगी एक दूसरे के नाम करने का फ़ैसला ले लिया. शादी से तलाक़ तक तवील सफ़र हालांकि मीना और कमाल साहब ने बडे ही तेज़  रफ़्तार क़दमों से पूरा किया पर इस सफ़र के पाकीज़ा जैसे पढाव को हिंदी सिने इंडस्ट्री आज भी फ़रामोश नही कर सकी. हालांकि पाकिज़ा से पहले भी शारदा, आरती, और दिल एक मंदिर जैसी फ़िल्में मीना के खाते में दर्ज हैं पर पाकीज़ा का जादू आज तक सर चढ कर बोलता है. “साहिबजान” महज़ तवायफ़ जब “ सलीम अली ख़ान” एक फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर से मोहब्बत कर बैठती है दुनिया समाज को धता बता कर जब दोनो भागने की तय्यारी करने  लगते हैं तो हक़ीकत से दो चार होते ही साहिबजान फिर अपने कोठे में ही पनाह लेने को मजबूर हो जाती है. बेहद पुर कशिश मगर बीमार मीना, कुल जमा 6 सुपर-डुपर हिट गाने:
·       चलो दिलदार चलो...
·       चलते चलते...
·       इन्हीं लोगों ने ले लीना..
·       ठाडे रहियो ओ बांके यार...
·       मौसम है आशिक़ाना...
·       आज हम अपनी दुआओं का असर...
    हर गाना मौसिक़ि की मिसाल, हर सेट सिनेमेट्रोग्राफ़ी का बेजोड नमूना और हर शॉट में मीना बीमार मगर अपने होने की मिसाल. ज्यों ज्यों मीना का फ़न परवान चढता गया और उसे लोगों की चाहतें मिलती गईं, सच्ची मोहब्बत उतनी रफ़्तार से मीना से दूर भागती रही. जवानी, हुस्न, दौलत और शोहरत क्या नही था मीना के पास. बस नही थी तो एक सच्ची मोहब्बत! कईं नामचीन लोगों के धोखे का शिकार हो मीना “ साग़र-ओ-मीना” को अपना दिल दे बैठी और लीवर के कैंसर के आख़िरी पढाव के दौरान जब दर्द के शिद्दत से दूर भागने क लिये पाकीज़ा के रूप में अपना फ़न्ने अदाकारी बिखेरा तो नतीजा ऐसे ही सामने आया जैसे पाब्लो पिकासो की आख़िरी पैंटिंग हो. 28 मार्च 1972. पाकीज़ा बन कर पूरी हुई और रह्मताबाद क़ब्रिस्तान के एक बोसीदा अंधेरे कोने से मीना के आखिरी सफ़र का बुलावा आ गया.
    हज़ारों बार हंस हंस के अपने ही जवां दिल के टुकडे चुनने वाली मीना को ज़िंदगी ने बहुत दिया पर कुछ अरमान फिर भी थे जो ज़िंदगी से पहले ही दम तोड गये थे. उन्हें मोहब्बत  नही मिली; वे अपने शोहर की बाहों में दम नही तोड पाईं; मां बनने की हसरत मीना के साथ ही दम तोड गई और मीना इस ज़िंदगी से बग़ैर कुछ लिये चली गईं... बेहद तन्हां...
पूरी चांदनी रातें मीना की याद आने पर आज भी गुनगुनातीहैं:   
चांद तन्हां है आसमां तन्हां
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हां
ज़िंदगी क्या इसी को कह्ते हैं
जिस्म तन्हां और जां तन्हां
राह देखाकरेगा सदियों तक
छोड जायेंगे ये जहां तन्हां
       लोरी अली

मीना: एक दर्द भरा नग़्मा



“मीना” हिंदी फ़िल्मों की “ट्रेजेडी क़्वीन”. “मीना” जैसे रब की सबसे मुकम्मल तख्लीक. “मीना” जैसे स्याह आसमान की क़िस्मत में आया कोई चौहदवीं का चांद; “मीना” जैसे बारिश की भीगी शाम ख़िडकी पर गूंजता बूंदों का जलतरन्ग. लिल्लाह! एक नाम और ख्वाहिशों का इतना लम्बा भीगता सा जंगल, तिस पर बक़ौल मीना:
“तुम क्या करोगे सुन कर मुझसे मेरी कहानी
बेलुत्फ़ ज़िंदगी के क़िस्से हैं फीके फीके”
    हाँजी! वही एक नाम, ज़िंदगी को जिस पर कभी रहम नही आया और क़ुदरत की शतरंज के अनदेखे ख़िलाडी ने जिसके खाते में घात और मातों ले अलावा कुछ नही लिखा वही मीना जिस पूरेपन से जीं और ज़िंदगी की बाज़ी को जीत इस जहाँ को तन्हां छोड कर चली भी गयीं, उसी मीना की जगह आज इतने तवील अरसे में भी कोई नही ले पाया; ये कायनात के निज़ाम पर क़ुदरत के क़ब्ज़े का बेजोड नमूना नही तो और क्या है!
    हिंदी सिने इंडस्ट्री उन दिनों अपने शबाब पर थी और मीना के बचपन ने बस आंखें खोली ही थी कि वक़्त, भूख और ग़रीबी की ज़रूरतों ने मीना को नन्हें कलाकार के रूप में इंडस्ट्री की देह्लीज़ पर ला कर खडा कर दिया. और फिर 1 अगस्त 1933 में जन्मी बेबी माह्जबीं के ख़ून में नानी हेमसुंदरी के पारसी-रंगमंच की तेह्ज़ीब क्या ज़िंदा हुई इंडस्ट्री में उनका नाम ही बदल गया. मां प्रभादेवी और अब्बू अली-बख्श की नूर चश्मी अब  बतौर नायिका (उम्र 13 साल, फिल्म: एक ही भूल) मीना कुमारी के नाम से जानी जाने लगीं. जब निर्देशक विजय भट्ट साहब ने उन्हें यह नाम दिया था वह भी नही जानते थे कि मोर पांख सी नज़ाकत लिये, इस शीश-परी का यह चमकदार नाम इंडस्ट्री को चौंधिया कर रख देगा और रोशनियों की पूरब-पच्छ्म फैलती किरनें इसे नयी नस्ल की नयी कलाकार के रूप में वक़्त के माथे पर सूरज सी अफ़्ज़ां कर के रख देंगी. जी हाँ जनाब! यह वही मीना है एक के बाद जिनके खाते में बैजू बावरा, परिणीता, साहिब बीबी और ग़ुलाम, और काजल जैसी कालजयी फ़िल्में आयीं और बतौर अभिनेत्री उनकी झोली में एक नही कईं फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कारों की झडी सी लग गई. सही भी है मीना ने जिस किरदार को पर्दे पर जिया उसमें ज़िंदगी भर कर रख दी. आप बिमल मित्र जी की उपन्यास साहिब बीबी और ग़ुलाम, को ज़रा पढ कर तो देखिये जनाब! “छोटी बहू” के किरदार में मीना ख़ुद ब ख़ुद अपने आपको ज़िंदा कर लेंगी, “मोहिनी सिंदूर” पाने को लालयित भारतीय नारी हो या पति की राह देखती पतिव्रता हो, शराब पीकर मद्मस्त हुई और कंकाल बनी भागो हो या “पिया ऐसो जिया में समाई गयो रे..”लफ्ज़ों पर लजाती अदाकारा हो मीना हर ज़ाविये से एक नयी मीना हो देखने वालों को बांध कर रख लेती हैं.  उनकी उठती गिरती पलकों से बयां होती मोहब्बतों की शिद्दतें, और अदाओं से खुलते नज़ाकत भरे लब जब बेहद रोशन जबीं (मस्तक) से मिल, मान से सर उठाते हैं, इन अदाओं में एक सूफ़ियत नुमायां होने लगती है, दिल में कुछ गूंजता है तो बस उन्हीं का मिसरा, “हमसे इबादतों में कमी रह गयी अगर/ रह रह के अपने माथे पे” मारा करेंगे हम.” सच भी है! अदाकारी मीना के लिये इबादत से कम नही थी. परिणीता की ललिता’, काजल की माधवी’, पाकीज़ा की साहिबजान और चित्रलेखा की चित्रलेखा किरदारों की लम्बी फेहरिस्त और हर किरदार के साथ निखरती मीना की अदाकारी. लम्बी, थकाऊ और चूर कर देने वाली मेहनत, डाईरेक्टर के तकाज़े और उसके बाद उभर कर आते  मीना के रंग. शायद इन्हीं रंगों की चकाचौंध थी कि कमाल अमरोही जैसे नामचीन डाईरेक्टर भी ख़ुद को मीना के जादू से बचा नही पाये.मीना की धडकने गाने लगीं:
आगाज़ तो होता  है
अंजाम नही होता
जब मेरी कहानी में
वह नाम नही होता.
    दोनो ने अपनी अपनी ज़िंदगी एक दूसरे के नाम करने का फ़ैसला ले लिया. शादी से तलाक़ तक तवील सफ़र हालांकि मीना और कमाल साहब ने बडे ही तेज़  रफ़्तार क़दमों से पूरा किया पर इस सफ़र के पाकीज़ा जैसे पढाव को हिंदी सिने इंडस्ट्री आज भी फ़रामोश नही कर सकी. हालांकि पाकिज़ा से पहले भी शारदा, आरती, और दिल एक मंदिर जैसी फ़िल्में मीना के खाते में दर्ज हैं पर पाकीज़ा का जादू आज तक सर चढ कर बोलता है. “साहिबजान” महज़ तवायफ़ जब “ सलीम अली ख़ान” एक फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर से मोहब्बत कर बैठती है दुनिया समाज को धता बता कर जब दोनो भागने की तय्यारी करने  लगते हैं तो हक़ीकत से दो चार होते ही साहिबजान फिर अपने कोठे में ही पनाह लेने को मजबूर हो जाती है. बेहद पुर कशिश मगर बीमार मीना, कुल जमा 6 सुपर-डुपर हिट गाने:
·       चलो दिलदार चलो...
·       चलते चलते...
·       इन्हीं लोगों ने ले लीना..
·       ठाडे रहियो ओ बांके यार...
·       मौसम है आशिक़ाना...
·       आज हम अपनी दुआओं का असर...
    हर गाना मौसिक़ि की मिसाल, हर सेट सिनेमेट्रोग्राफ़ी का बेजोड नमूना और हर शॉट में मीना बीमार मगर अपने होने की मिसाल. ज्यों ज्यों मीना का फ़न परवान चढता गया और उसे लोगों की चाहतें मिलती गईं, सच्ची मोहब्बत उतनी रफ़्तार से मीना से दूर भागती रही. जवानी, हुस्न, दौलत और शोहरत क्या नही था मीना के पास. बस नही थी तो एक सच्ची मोहब्बत! कईं नामचीन लोगों के धोखे का शिकार हो मीना “ साग़र-ओ-मीना” को अपना दिल दे बैठी और लीवर के कैंसर के आख़िरी पढाव के दौरान जब दर्द के शिद्दत से दूर भागने क लिये पाकीज़ा के रूप में अपना फ़न्ने अदाकारी बिखेरा तो नतीजा ऐसे ही सामने आया जैसे पाब्लो पिकासो की आख़िरी पैंटिंग हो. 28 मार्च 1972. पाकीज़ा बन कर पूरी हुई और रह्मताबाद क़ब्रिस्तान के एक बोसीदा अंधेरे कोने से मीना के आखिरी सफ़र का बुलावा आ गया.
    हज़ारों बार हंस हंस के अपने ही जवां दिल के टुकडे चुनने वाली मीना को ज़िंदगी ने बहुत दिया पर कुछ अरमान फिर भी थे जो ज़िंदगी से पहले ही दम तोड गये थे. उन्हें मोहब्बत  नही मिली; वे अपने शोहर की बाहों में दम नही तोड पाईं; मां बनने की हसरत मीना के साथ ही दम तोड गई और मीना इस ज़िंदगी से बग़ैर कुछ लिये चली गईं... बेहद तन्हां...
पूरी चांदनी रातें मीना की याद आने पर आज भी गुनगुनातीहैं:   
चांद तन्हां है आसमां तन्हां
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हां
ज़िंदगी क्या इसी को कह्ते हैं
जिस्म तन्हां और जां तन्हां
राह देखाकरेगा सदियों तक
छोड जायेंगे ये जहां तन्हां
       लोरी अली

रविवार, 25 मार्च 2018

ज़िंदगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है : फ़ारूख़ शेख़ (यादें)




      बरोडा, ग़ुजरात के पास एक छोटा सा गांव अमरोली; उसके नन्हे से क़स्बे की बडी सी हवेली का ज़नाना, जिसमे दर्दे ज़ेह से करहाती “फ़रीदा बेगम” और पेहलौठी के बच्चे का इंतेज़ार करते मुम्बई से वकालत पढ कर आये जनाब मुस्तफ़ा शेख़. दोनो ही इस बात से अंजान कि अल्लाह एक के बाद एक पांच औलादे-नरीना अता करेगा पर यह जो पहला है उसकी सादगी, “उसकी शान”  बन कर हिंदुस्तान की सिनेमाई दुनिया पर नूरो अम्बर का एक शामियाना तान देगी. 25 मार्च 1948, ग़ुलाम हिंदोस्तान की जद्दोजहद के बीच खुलता आज़ादी का दरवाज़ा और उसी देह्लीज़ पर हिंदी सिनेमा को सौगात में मिला फारूख़ शेख़ का वुजूद जब आंखो के आगे रक़्स करता है तो  लगता है गहरी गहरी आंखो से किसी का सच धीमे धीमे झांकता हुआ रूह में घुल रहा है, अदाकारी की प्यास पर कलाकारी के ठंडे ठंडे छींटे मारता रूह को सरापा एक नग़मे से सरबौर कर गुनगुनाता, “आजा रे! आजा रे ओ मेरे दिलबर आजा....”
             हिंदी सिनेमाई दुनिया में “किचन सिंक ड्रामा” की थीम और “एंग्री यंगमन” वाले किरदारों की बीच फ़ारूख़ की अदाकारी अपनी एक अलग पह्चान रखती है. उनके चाहने वाले आम लोगों के बीच बहुत ख़ास होते हैं और जब बज़्म मे उनका ज़िक्र आता है तो जैसे गिनती हमेशा से ही पलट जाती है, एक ऐसा चुम्बक काम करता है जो मक़नातीसी जादू से अपनी तरफ़ खींचता सा लगता है और एक आम आदमी के ख़्वाब, एक आम आदमी की मज्बूरी और एक आम आदमी की कमियां पर्दे पर जीते जीते ही फ़ारूख़ अदाकारी की एक नई इबारत गढते हिंदी सिनेमा के अल्हदा रंग की पह्चान बन जाते हैं. चश्मेबद्दूर का सिद्दार्थ पाराशर हो या साथ साथ का अविनाश वर्मा’, कथा का राजाराम हो या किसी से न कहना का रमेश त्रिवेदी अलग अलग किरदारों को अलग अलग अंदाज़ मे जीती फ़ारूख़ की शख़्सियत अदाकारी की सादगी  और ताज़ापन हिंदी सिनेमा की थाली में कुछ यों परोस कर रख देती है कि आंखे उसे दुहरा दुहरा कर देखने को मजबूर हो जाती हैं. मेरा दामाद, लिसन अमाया, नूरी, रंग बिरंगी, क्लब 60, और भी न जाने कितनी यादें...जिनके   रंग पुराने नही पडते वे धीमे धीमे फैल कर गुलाल हो जाया करते हैं. 
                 
                        शौक़िया तौर पर थियेटर करते हुए फारूख़ ने क्रिकेट को अपना पह्ला प्यार माना था. पत्नी रूपा उनका दूसरा प्यार. बेशक फारूख़ का एक्टिंग बतौर करियर एक इत्तेफाक़न लिया गया फैसला था जिससे इनके अम्मी अब्बू बहुत खुश नही थे पर किसी क़िसम का गुरेज़ भी नही..बस एक फितरत थी जिसने हमेशा से कुछ अलग करने को उकसाया. यही वजह थी कि सेंट ज़ेवियर्स का बैक बेंचर और सेंट मैरीज़ का लेक्चर बंक कर कैंटीन मे बैठनेवाला और ज़िंदगी को जुरआ जुरआ पीने वाला, गहरी आंखो वाला यह नौजवान वकालत की मंज़िलों का रास्ता रास्ते में छोड   अपनी फ़ितरतों की ज़िद मान बैठा और ऐसे ही ज़िद्दी और कुछ अलग कर गुज़रने वाले लोगों ने हिंदी सिनेमा को मैन- स्ट्रीम-सिनेमा से निकाल एक नया सिनेमा दिया जो आगे चल कर “समानांतर सिनेमा” कह्लाया. उन दिनो जापान और फ़्रांस के एक्पेरिमेंटल नज़रिये ने हिंदी सिने जगत पर ख़ासा असर डाला था और सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक साहब की हाथों बंगाली सिनेमा बेहद खुश्नुमा रूप ले रहा था बस उसी फिज़ा में सांस लेते हुए फारूख साहब के फन्ने अदाकारी ने अपने रंग बिखेरने चालू किये और नतीजतन “आर्ट-मूवीज़” का ज़ायक़ा हिंदी ज़हन आज तक फ़रामोश नही कर सका.

     फारूख़ के करियर की पह्ली फिल्म ग़र्म हवा एक मील का पत्थर थी पर इसी  फिल्म ने जनाब सत्यजीत रे साहब को फारूख के बेशुमार टेलेंट का अंदाज़ा करवाया था और उनके खाते में शतरंज के खिलाडी जैसी फिल्म आन गिरी थी. उपन्यास सम्राट की क़लम से तह्रीक़  हुई इस कहानी में किरदार के साथ इंसाफ एक बडा ही मुश्किल काम था. फ़ारूख़ साहब ने इसे एक चैलेंज की तरह लिया और बेहद सधे अंदाज़ की अदाकारी से ना केवल सिने प्रेमियों के बल्कि अदाकारी से मोहब्बत रखने वालों के भी दिल में घर कर लिया. अदाकारी की रफ़्तार का आलम तो फिर सब जानते ही हैं .. दिल पर हाथ रख कर कहिये जनाब! रमोला को कचोरियां थमा “सुफ़ैद नही तो काला, पीला, लाल कोई भी झूठ बोल देना! पर बोल ज़रूर देना:” वाले रमेश बाबू को आप भूल पाये हैं! या चश्मेबद्दूर के “प्यार, लगावट, प्रणय, मोहब्ब्त” के बोल पर थिरकते, बाइक पर ट्रिपलिंग़ मारते सिद्धार्थ को आपने दिल से नही चाहा!!!

      फारूख साहब का ज़िक्र हो और "नूरी", "बाज़ार" और "उमरावजान" ज़हन के दरवाज़े पर दस्तक न दें, ऐसा भला हो सकता है! शहरयार साहब का कलाम और ख्य्याम साहब की मौसिक़ी के बीच फारूख की अदाकारी!!! रेखा जैसी बेहद ग्लैमरस ऐक्ट्रेस के पह्लू में बैठे नवाब सुल्तान (फारूख़ साहब) और मकालमे के नाज़ो अंदाज़: “किस किस तरह से मुझको ना रुस्वा किया गया/ ग़ैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया ....” निगाहों की बेबसी से बयां होती कल्बी कश्मकश और “तशरीफ़ लाइये हुज़ूर! और आइये हुज़ूर” के बीच ज़ाहिर एक नौसिखिया नवाब की झिझक से लबरेज़ एक जुमला, “हम कोठों पर कभी नही आते” जवाबन उमराव की शरारत “अब हम ऐसे बुरे भी नही” में दिया गया निहायत भोला नवाबी एक्सप्रेशन. लिल्लाह!!! कितनी फ़ारूखियत टपकती है इस सीन में! इतनी की ख़ुद फ़ारूख साहब अदाकारी का दूसरा नाम हो उठते हैं, देखिये तो ज़रा:
फ़ारूख़ (सुल्तान नवाब) : कल रात का नशा तो उतरा ही नही, ऐसा मालूम होता था
जैसेआप हमारे लिये ही गा रही हों  
उमराव:  लीजिये भला! और वहां आपके जैसी शायरी और मौसिक़ी की समझ रखने वाला था ही कौन!
फ़ारूख़ (सुल्तान नवाब) : (कोठे वालियों की जुमलेबाज़ी से नाआश्ना नवाबियत के तेवरों से बेख़बर एक बेहद मासूम इंसान की तरह) जल्द्बाज़ी मे हम दाद देना ही भूल गये
उमराव: इससे बडी दाद क्या होगी कि कोईं दाद देना ही भूल जाये     
कितना इंसाफ किया था नवाब साहब के किरदार से फ़ारूख साहब ने कि आज तक यादें ज़हन पर ताज़ा हैं! नवाब ही क्यों क्या आप बाज़ार  के “सर्जू” को फ़रामोश कर पाये हैं! नही न!!! जाने दीजिये दास्तान तवील है और ज़ेहन मे अपनी मासूमियत समेटे फारूख साहब का तसव्वुर अपने पूरेपन पर “ फिर छिडी रात बात फूलों की.....”
हाँजी जनाब!!  ये वे लोग थे जिनका रास्ता अलग था, जो भीड नही थे, जिनका तस्व्वुर कुछ ऐसा था जैसे सेहरा में रात फूलों की.....” इंतेक़ाल के बाद जिनकी सालगिरह यादों की काफूर जैसी महक उठाकर हाल से माज़ी में पटक देती है.....सालगिरह की मुबारकबाद दिये जाती हूं चुल्हे पर रखे दूध मे उफान आ गया है और आंखों से भी दो बूंदे झलक गयी हैं , बतौर ख़िराजे अक़ीदत.....