“मीना” हिंदी फ़िल्मों की “ट्रेजेडी क़्वीन”. “मीना” जैसे रब की सबसे
मुकम्मल तख्लीक. “मीना” जैसे स्याह आसमान की क़िस्मत में आया कोई चौहदवीं का चांद; “मीना” जैसे बारिश
की भीगी शाम ख़िडकी पर गूंजता बूंदों का जलतरन्ग. लिल्लाह! एक नाम और ख्वाहिशों का
इतना लम्बा भीगता सा जंगल, तिस पर बक़ौल मीना:
“तुम क्या करोगे सुन
कर मुझसे मेरी कहानी
बेलुत्फ़ ज़िंदगी के
क़िस्से हैं फीके फीके”
हाँजी! वही एक नाम, ज़िंदगी को जिस पर
कभी रहम नही आया और क़ुदरत की शतरंज के अनदेखे ख़िलाडी ने जिसके खाते में घात और
मातों ले अलावा कुछ नही लिखा वही मीना जिस पूरेपन से जीं और ज़िंदगी की बाज़ी को जीत
इस जहाँ को तन्हां
छोड कर चली भी गयीं, उसी मीना की जगह आज इतने तवील अरसे में भी कोई नही ले पाया; ये कायनात के निज़ाम पर क़ुदरत के क़ब्ज़े का बेजोड नमूना नही तो और क्या है!
हिंदी सिने इंडस्ट्री उन दिनों अपने शबाब पर
थी और मीना के बचपन ने बस आंखें खोली ही थी कि वक़्त, भूख और ग़रीबी की ज़रूरतों ने
मीना को नन्हें कलाकार के रूप में इंडस्ट्री की देह्लीज़ पर ला कर खडा कर दिया. और
फिर 1 अगस्त 1933 में जन्मी बेबी माह्जबीं के ख़ून में नानी हेमसुंदरी के
पारसी-रंगमंच की तेह्ज़ीब क्या ज़िंदा हुई इंडस्ट्री में उनका नाम ही बदल गया. मां
प्रभादेवी और अब्बू अली-बख्श की नूर चश्मी अब
बतौर नायिका (उम्र 13 साल, फिल्म: एक ही भूल) मीना
कुमारी के नाम से जानी जाने लगीं. जब निर्देशक विजय भट्ट साहब ने उन्हें यह नाम
दिया था वह भी नही जानते थे कि मोर पांख सी नज़ाकत लिये, इस
शीश-परी का यह चमकदार नाम इंडस्ट्री को चौंधिया कर रख देगा और रोशनियों की
पूरब-पच्छ्म फैलती किरनें इसे नयी नस्ल की नयी कलाकार के रूप में वक़्त के माथे पर
सूरज सी अफ़्ज़ां कर के रख देंगी. जी हाँ जनाब! यह वही मीना है
एक के बाद जिनके खाते में बैजू बावरा, परिणीता, साहिब बीबी और ग़ुलाम, और काजल जैसी
कालजयी फ़िल्में आयीं और बतौर अभिनेत्री उनकी झोली में एक नही कईं फ़िल्म-फ़ेयर
पुरस्कारों की झडी सी लग गई. सही भी है मीना ने जिस किरदार को पर्दे पर जिया उसमें
ज़िंदगी भर कर रख दी. आप बिमल मित्र जी की उपन्यास साहिब बीबी और ग़ुलाम, को ज़रा पढ कर तो देखिये जनाब! “छोटी बहू” के किरदार में मीना ख़ुद ब ख़ुद
अपने आपको ज़िंदा कर लेंगी, “मोहिनी सिंदूर” पाने को लालयित
भारतीय नारी हो या पति की राह देखती पतिव्रता हो, शराब पीकर
मद्मस्त हुई और कंकाल बनी भागो हो या “पिया ऐसो जिया में समाई गयो रे..”लफ्ज़ों पर
लजाती अदाकारा हो मीना हर ज़ाविये से एक नयी मीना हो देखने वालों को बांध कर रख
लेती हैं. उनकी उठती गिरती पलकों से बयां
होती मोहब्बतों की शिद्दतें, और अदाओं से खुलते नज़ाकत भरे लब
जब बेहद रोशन जबीं (मस्तक) से मिल, मान से सर उठाते हैं, इन अदाओं में एक सूफ़ियत नुमायां होने लगती है, दिल
में कुछ गूंजता है तो बस उन्हीं का मिसरा, “हमसे इबादतों में
कमी रह गयी अगर/ रह रह के अपने माथे पे” मारा करेंगे हम.” सच भी है! अदाकारी मीना
के लिये इबादत से कम नही थी. परिणीता की ‘ललिता’, काजल की ‘माधवी’, पाकीज़ा
की ‘साहिबजान’ और चित्रलेखा की ‘चित्रलेखा’ किरदारों की लम्बी फेहरिस्त और हर किरदार
के साथ निखरती मीना की अदाकारी. लम्बी, थकाऊ और चूर कर देने
वाली मेहनत, डाईरेक्टर के तकाज़े और उसके बाद उभर कर आते मीना के रंग. शायद इन्हीं रंगों की चकाचौंध थी
कि कमाल अमरोही जैसे नामचीन डाईरेक्टर भी ख़ुद को मीना के जादू से बचा नही पाये.मीना
की धडकने गाने लगीं:
आगाज़ तो होता है
अंजाम नही होता
जब मेरी कहानी में
वह नाम नही होता.
दोनो ने अपनी अपनी ज़िंदगी
एक दूसरे के नाम करने का फ़ैसला ले लिया. शादी से तलाक़ तक तवील सफ़र हालांकि मीना और
कमाल साहब ने बडे ही तेज़ रफ़्तार क़दमों से
पूरा किया पर इस सफ़र के पाकीज़ा जैसे पढाव को हिंदी सिने इंडस्ट्री आज भी
फ़रामोश नही कर सकी. हालांकि पाकिज़ा से पहले भी शारदा, आरती, और दिल एक मंदिर
जैसी फ़िल्में मीना के खाते में दर्ज हैं पर पाकीज़ा का जादू आज तक सर चढ
कर बोलता है. “साहिबजान” महज़ तवायफ़ जब “ सलीम अली ख़ान” एक फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर से मोहब्बत
कर बैठती है दुनिया समाज को धता बता कर जब दोनो भागने की तय्यारी करने लगते हैं तो हक़ीकत से दो चार होते ही साहिबजान फिर
अपने कोठे में ही पनाह लेने को मजबूर हो जाती है. बेहद पुर कशिश मगर बीमार मीना, कुल जमा 6
सुपर-डुपर हिट गाने:
· चलो दिलदार चलो...
· चलते चलते...
· इन्हीं लोगों ने ले
लीना..
· ठाडे रहियो ओ बांके
यार...
· मौसम है आशिक़ाना...
· आज हम अपनी दुआओं का
असर...
हर गाना मौसिक़ि की मिसाल, हर सेट सिनेमेट्रोग्राफ़ी
का बेजोड नमूना और हर शॉट में मीना बीमार मगर अपने होने की मिसाल. ज्यों ज्यों मीना
का फ़न परवान चढता गया और उसे लोगों की चाहतें मिलती गईं, सच्ची
मोहब्बत उतनी रफ़्तार से मीना से दूर भागती रही. जवानी, हुस्न, दौलत और शोहरत क्या नही था मीना के पास. बस नही थी तो एक सच्ची मोहब्बत! कईं
नामचीन लोगों के धोखे का शिकार हो मीना “ साग़र-ओ-मीना” को अपना दिल दे बैठी और लीवर
के कैंसर के आख़िरी पढाव के दौरान जब दर्द के शिद्दत से दूर भागने क लिये पाकीज़ा
के रूप में अपना फ़न्ने अदाकारी बिखेरा तो नतीजा ऐसे ही सामने आया जैसे पाब्लो पिकासो
की आख़िरी पैंटिंग हो. 28 मार्च 1972. पाकीज़ा बन कर पूरी हुई और रह्मताबाद क़ब्रिस्तान
के एक बोसीदा अंधेरे कोने से मीना के आखिरी सफ़र का बुलावा आ गया.
हज़ारों बार हंस हंस के अपने ही जवां दिल के टुकडे
चुनने वाली मीना को ज़िंदगी ने बहुत दिया पर कुछ अरमान फिर भी थे जो ज़िंदगी से पहले
ही दम तोड गये थे. उन्हें मोहब्बत नही मिली; वे अपने शोहर
की बाहों में दम नही तोड पाईं; मां बनने की हसरत मीना के साथ
ही दम तोड गई और मीना इस ज़िंदगी से बग़ैर कुछ लिये चली गईं... बेहद तन्हां...
पूरी
चांदनी रातें मीना की याद आने पर आज भी गुनगुनातीहैं:
चांद तन्हां है
आसमां तन्हां
दिल मिला है कहाँ
कहाँ तन्हां
ज़िंदगी क्या इसी को
कह्ते हैं
जिस्म तन्हां और जां
तन्हां
राह देखाकरेगा
सदियों तक
छोड जायेंगे ये जहां
तन्हां
लोरी अली