दयार -ए -दिल की रात में, चराग़ सा
जला गया
मिला नहीं तो क्या हुआ , वह शक्ल तो
दिखा गया
जुदाइयों के ज़ख्म,
दर्द-ए -ज़िंदगी ने भर दिए
तुम्हे भी नींद गयी , हमें
भी सब्र आ गया
ये सुबह की सफेदियां, ये दोपहर की
ज़र्दियां
अब आईने में देखता हूँ , मै कहाँ
चला गया
पुकारती हैं फुर्सतें , कहाँ गयी वो सोहबतें
ज़मीं निगल गयी उन्हें, या
आसमान खा गया
वो दोस्ती तो ख़ैर अब , नसीब-ए
-दुश्मनी हुई
वो छोटी छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी
चला गया
ये किस ख़ुशी की रीत पे ग़मों को नींद
आ गयी
वो लहर किस तरफ गयी, ये मैं कहाँ
समा गया
गए दिनों की लाश पर पड़े
रहोगे कब तलक
उठो अमलकशों उठो ! के आफ़ताब
आ गया
शायर ए नामालूम
प्रस्तुति : लोरी
6 टिप्पणियां:
नासिर काज़मी साहब की ग़ज़ल थी ये मशहूर तो गुलाम अली साहब ने गाकर कर दी।
Bahut Khoobsurat Gazal
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-12-2014) को "आज बस इतना ही…" चर्चा मंच 1816 पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut khoob! :)
बहुत खूब
बहुत खूब
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