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सोमवार, 1 दिसंबर 2014

दयार -ए -दिल की रात में,




दयार -ए -दिल की रात में, चराग़ सा जला गया
मिला नहीं तो क्या हुआ , वह शक्ल तो दिखा  गया

जुदाइयों  के ज़ख्म, दर्द-ए -ज़िंदगी ने भर दिए
तुम्हे भी नींद  गयी , हमें भी सब्र   गया

ये सुबह की सफेदियां, ये दोपहर की ज़र्दियां
अब आईने में देखता हूँ , मै कहाँ चला गया

पुकारती हैं फुर्सतें , कहाँ गयी  वो सोहबतें
ज़मीं  निगल गयी उन्हें, या आसमान  खा गया

वो दोस्ती तो ख़ैर अब , नसीब-ए -दुश्मनी हुई
वो छोटी छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी चला गया

ये किस ख़ुशी की रीत  पे ग़मों  को नींद आ गयी
वो लहर किस तरफ गयी, ये मैं कहाँ समा गया

गए दिनों की लाश पर पड़े रहोगे कब तलक
उठो अमलकशों उठो ! के  आफ़ताब  आ गया
                                                                       शायर  ए नामालूम 
                                                                    प्रस्तुति : लोरी 

6 टिप्‍पणियां:

Manish Kumar ने कहा…

नासिर काज़मी साहब की ग़ज़ल थी ये मशहूर तो गुलाम अली साहब ने गाकर कर दी।

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

Bahut Khoobsurat Gazal

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-12-2014) को "आज बस इतना ही…" चर्चा मंच 1816 पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

बेईमान शायर ने कहा…

bahut khoob! :)

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

बहुत खूब

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

बहुत खूब