बराहे रास्त मुलाक़ात को ज़माना हुआ
वह शहर छोड़ के जाना तो कब से चाहता था
यह नौकरी का बुलावा तो एक बहाना हुआ
ख़ुदा करे तेरी आँखें हमेशा हँसती रहें
ये आँखें जिनको कभी दुःख का हौंसला न हुआ
कनारे सहने चमन सब्ज़ बेल के नीचे
वह रोज़ सुबह का मिलना तो अब फ़साना हुआ
मैं सोंचती हूँ कि मुझमे कमी थी किस शै की
कि सब का होके रहा वह, बस एक मेरा न हुआ
किसे बुलातीं हैं आँगन की चम्पई शामें
कि वह अब नए घर में भी पुराना हुआ
धनक के रंग में साड़ी तो रंग ली मैंने
और अब ये दुःख कि पहन कर किसे दिखाना हुआ
मैं अपने कानों में बेले के फूल क्यूँ पहनूँ
ज़बाने रंग से किसको मुझे बुलाना हुआ
- परवीन शाकिर
9 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना शनिवार 10 जनवरी 2015 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
shukriya Yashoda ji!
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (10-01-2015) को "ख़बरची और ख़बर" (चर्चा-1854) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
sukriya Guru Dev! :)
कृपया कुछ शब्दों के अर्थ दे दें तो समझने में आसानी रहे !
सुन्दर ग़ज़ल
मुद्द्त्तें गुज़रीं न उसका लौट के आना हुआ
मौसमे गुल का फिर कोई नया बहाना हुआ
ये नज़र आज भी उसी मोड़ पर ठहरीं है
जिस मोड़ से उसका हाथ छोड़ कर जाना हुआ
खुदा करे तू सलामत रहे यही दुआ है मेरी
जीने के लिए तेरी यादों का बहाना तो हुआ
लाख चलो भी जाओ दूर कहीं बहुत दूर मुझसे
ख़्वाबों में सही तू मेरे दिल का खज़ाना तो हुआ
अज़ीज़ जौनपुरी
सुन्दर ग़ज़ल
पिय बिन सब सूना ...
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ..
बहुत बहुत ही खूब,
कास ये सादगी हम भी अपनी कलम में कभी ला पाते.
वह शहर छोड़ के जाना तो कब से चाहता था
यह नौकरी का बुलावा तो एक बहाना हुआ
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