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रविवार, 25 जनवरी 2015

धड़कनों के सम पर मुहब्बतों के सुर : माण्डव

कपूर तालाब 
वक़्त कैसा भी हो इसकी ख़ासियत  है, यह ठहरता नहीं, गुज़र जाता है. गुज़र कर कभी अफ़साने की शक्ल ले लेना , कभी गीत हो जाना, कभी एक ठंडी सी सांस लेकर, किसी अनकहे जज़्बे सा ही चमक कर बुझ जाना इसकी तासीर है.  इसी तासीर को हवा देने के लिए शायर गज़लें लिखते हैं और मुसव्विर अपने कैनवास को आवारा रंगों से भर देते हैं ; भले आदमी और पुजारी मंदिरों और मस्जिदों की तामीर करवाते हैं और राजे-रजवाड़े महल -दुमहले।  वक़्त, एहसास और ज़िंदगी को बाँध लेने की ऐसी ही एक कोशिश है 'मध्य भारत के मालवा अंचल का माण्डव ' , तारीखों के बनने और मिटने के बीच मुहब्बत को हमेशा हमेशा के लिए वक़्त की पेशानी पर नक़्श कर देने  की एक नन्ही सी कोशिश और रक़्स और राग को ज़िंदगी के रंगों में घोल देने की मीठी सी ख़्वाहिश।
और माण्डव है भी क्या!!!  सुरों की कशिश से ज़िंदगी के दर्द को भुला देने की ख़ातिर बसाया गया उदास आरज़ुओं  और नामुकम्मल तमन्नाओं का ख़्वाब-नगर।  

वनस्पति 
​​महलों मज़ारों, नदियों और किनारों से आबाद , ऊँची -निचली ज़मीन के फूलों, पौधों , पत्तों  और मुहब्बतों से अटा पड़ा एक ऐसा ज़खीरा जहां कहीं गुल-ए -अब्बास है तो कहीं  गेंदा। कहीं चांदनी तो  कहीं सूरजमुखी। कहीं बेले हैं तो कहीं गुलाब। अलसाये अमरूदों नीम और बबूलों के बीच बौराये आम हैं  तो कहीं नर्मदा के किनारे किनारे जंगली झाड़ियों, घासों और बांसों के झुरमुटों के बीच उग आयी खुरासानी  इमली। कहीं खटियाती अम्बराइयों पर घिर आये झूले हैं तो कहीं ज़िंदगी के तल्ख़ एहसासों सी ही नीम की पीली- ललछौहीं निम्बोलियाँ। मालवी वनस्पति से अटा पड़ा माण्डव सोंचने को मजबूर करता है , माण्डव मालवा से आबाद है या मालवा माण्डव से गुलज़ार ……!  

मालवा  की माटी के गुलाब 
मालवा की अलसाई नींदों में ख्वाब के धागों से बंधी यह नगरी मध्य -प्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर से ९० किमी के फ़ासले पर मौजूद है।  अमूमन मुहब्बतों की नगरियों के रास्ते एक जैसे ही होते हैं, ख़ूबसूरत , ख़्वाबीदा  और ख्यालों से अटे पड़े।  माण्डव के घुमावदार रास्ते भी बिल्कुल  ऐसे ही हैं।  ख़ैर जी! खाइयों से ऊँचाइयों  का यह सफर ऐसे ही करने नहीं मिलता , रास्ते में चक्कर भी आते हैं, उल्टियाँ भी होती हैं, और इसका सिला यह मिलता है कि  माण्डव पाँच -पाँच दरवाज़ों में पलकें बिछाए आपका इस्तक़बाल करता है , आलमगीर औरंगज़ेब की यादों से गुलज़ार 'आलमगीर दरवाज़ा' , हर तबके को इज़्ज़त देने की ख़्वाहिश  लिए खड़ा  'भंगी -दरवाज़ा', आपकी आमद पर कमर को कमानी सा झुकाये कमानी दरवाज़ा, गाड़ियों के लिए 'गाड़ी -दरवाज़ा' और साहिबों के लिए दिल्ली का रुख करता 'दिल्ली दरवाज़ा'। इतने दरवाज़ों में खुद का इस्तक़बाल करवाते, अपने आप को 'शाही' मान आखिरकार आप माण्डव पहुँच ही जाते हैं. 

काँकड़ा खोह 
माण्डव की फ़िज़ा में पाँव रखते ही आपका सामना होता है काँकड़ा खोह के बेहद दिलफ़रेब जल्वों से।  ऊँचाइयों से गहराईयों को जाता पानी, कुहासे की चादर से ढंके दरख़्त, कड़वाती सी जंगली ख़ुश्बू, वादी में हर सिम्त उग आयीं  झाड़ियाँ, पथरीली, बेहद चटियल सी नुकीली चट्टानों में बूँद बूँद रिसता पानी और यहाँ -वहाँ  घूमते शरीर बन्दर।  हरियाती उमंगों पर धूप का पर्दा काँकड़ा - खोह में आने वाले सैलानियों में से उन लोगों के जज़्बातों पर हैरत अंगेज़ असर डालता है, जिनकी नस-नस में क़ुदरत से मुहब्बत रक़्स कर रही हो।  काँकड़ा- खोह माण्डव के हुस्न का वह दुर्ग है जहां मालवा और निमाड़ की तहज़ीब बड़े ही गंगो-जमुनी अंदाज़ में मिली हुई दिखती है.  भीलों के नन्हे बच्चे धनुष से निशाना साधने का लालच देते हैं और मक्के के निमाड़ी भुट्टों की सौंधी सौंधी महक ख़ुद -ब- ख़ुद अपनी ओर  खींच लेती हैं बस्स ! रूह पर वही असर होता है , जो पंचमढ़ी में प्रवेश के दौरान 'अप्सरा- विहार' देख कर होता है। आपकी गाड़ी और काफ़िला धूप छाँव के खेल से खुद को सरशार करता आगे बढ़ता है और आप मालवा की माटी में खिल आयी गेंदे गुलाबों के साथ पोई -चौलाई  की क़िस्में गिन  डालते हैं. घास -कास की हज़ारों क़िस्मों के बीच क़िस्म क़िस्म के दरख्तों को देख आपको  उन गधों पर भी रश्क़ आने लगता है जो शहरी दुनिया से दूर , क़ुदरत की इस हरियायी गोद में बड़े ही लाड से चर  रहे हैं. ऊंचे -नीचे खपरैलों वाले इक्के दुक्के घर, छप्परों पर पड़ीं 
बाज़बहादुर का महल और मांडू की प्राकृतिक सुंदरता 
मौसम की सब्ज़ बेलें, चूल्हों से उठता, इठलाता धुआँ।दालपानियों पर पड़ने वाले घी की सौंधी महक और खण्डहरों की ज़िंदा ठंडक !कुल  मिलाकर माण्डव गर्मियों की शाम, ठन्डे फालूदे सा ही रूह को तरबतर कर जाता है।   

वैसे तो माण्डव में क़दम- क़दम पर क़ुदरत के हुस्न को इंसान की ज़हानत के हाथों संवार कर महलों की शक्ल में ढाल देने के सुबूत मिलते हैं पर महलों की इस नगरिया को इत्मीनान से देखें तो हम इसे ३ हिस्सों में तक़सीम कर सकते हैं: 
1 ) पहला हिस्सा : अ) राम मंदिर ब) जामा मस्जिद  स) होशंगशाह का मक़बरा  द ) अशरफ़ी  महल  
2 ) दूसरा हिस्सा : यह अमूमन नर्मदा किनारे का हिस्सा है जिसमे आते है: अ) ईको  प्वाइंट, दाई का महल ब) रेवा कुण्ड  स) बाज़बहादुर का महल  द ) रानी रूपमती का महल। 
3 ) तीसरा हिस्सा : यह शाही हिस्सा कहलाता है , जो कि अ) जहाज़ महल ब) हिण्डोला महल स) जल महल  द ) हम्माम, नील कण्ठेश्वर, सूरजकुंड , संग्रहालय  आदि हिस्सों से मिलकर मुकम्मल होता है। 
  
अशर्फी महल 
हिन्दू और मुस्लिम वास्तुकला का मिलाजुला नमूना 'जामा मस्जिद'  परमारों और ख़िलजियों की सभ्यता की ज़िंदा मोहर है तो बाल्कनी , महराब, चबूतरे, आर्च और गुन्बद , माण्डव की साड़ी  में मुगलों द्वारा टांकी गई ज़री की झालर; मकराना के पत्थरो से बना दायी का महल  मुगलिया आर्ट में राजस्थानी जालियों का सुंदर संगम है तो  रानी जोधा के लिए अकबर द्वारा बनाया गया, क़ुरानी आयतों से सजा 'नीलकंठेश्वर' हिन्दुस्तान के सूफ़ी जज़्बों का वह राज़ है जिसके लिए कभी अल्लामा इक़बाल ने लिखा था , "कुछ बात है कि मिटती नहीं हस्ती हमारी / सदियों रहा है दुश्मन, दौरे- जहां हमारा '; अशर्फी महल अपने आप में एक अनूठा महल कमसिन रानियों को अशर्फी के ज़रिये दुबला -पतला और चुस्त दुरुस्त रखने का आकर्षक रानीवास है तो कपूर तालाब रानियों के कपूर से सने बाल धोने का वाहिद कोना, इन तमाम इमारतों के जानने समझने के लिए इतिहास की किताबें भरी पड़ी हैं. इनका हुस्न, इनकी कुशादगी और शिल्पकारी परमार, ग़ौरी, ख़िलजी और मुग़लों समेत उन तमाम रजवाड़ों की तारीख का एक ऐसा  हिस्सा है जिसके बग़ैर  हिन्दुस्तान का इतिहास  अधूरा ही है।   
                               
हिंडोला महल 
पहाड़ियों ,ऊंचाइयों और खाइयों के दीवानों के लिए माण्डव बेशक दिलचस्पी का सामान है पर पत्थरों और इमारतों से मुहब्बत करने वालों के लिए भी यह कोई काम कुतूहल नहीं समेटे है! सीरिया की दमिश्क़ मस्जिद से होड़ रखती। लाल संगमरमर , उड़दिए और काले पत्थरों से बनी अनोखी सी जामा मस्जिद, कभी ख्यालों के आर्किटेक्चर में पत्थर मारती लगती है तो कहीं ताजमहल से २० साल क़ल्ब बना होशंगशाह का मक़बरा अचम्भित करता दिखता है।  कहीं सितारापाक  बाबा और मीरां दातार के मज़ार बुलाते हैं तो कही राम मंदिर और नील कण्ठेश्वर के गुंबद अपनी ओऱ खींचते लगते हैं।  हिंडोला महल, जहाज़ महल और रूपमती मंडप भी कोई  कम  खूबसूरत चीज़ नही! अपने जल्वे  बिखेरने पर आएं तो समाँ बाँध कर रख देते हैं, पर मुहब्बत !!! मुहब्बत वह वाहिद कैटेलिस्ट (उत्प्रेरक) है जिसके दम पर इतना लंबा इतिहास, माण्डव के इतने छोटे से हिस्से में सिमट कर रह गया है. 

रूपमती झरोखा 
मुहब्बत के ज़िक्र के बगैर माण्डव का ज़िक्र अधूरा है और क्यों न! मुहब्बत के बग़ैर क्या पूरा है ! परियाँ चाँद के इश्क़ में मुब्तिला हैं , चाँदनी  शायरों के  दम से   रोशन है, सितारों के जल्वे  चाँदनी  के शैदाई हैं, तो सूरज ज़मीन के इश्क़ में गिरफ्त हो उस पर अपनी शुआयें  फैंक रहा है , भौरा फूल का आशिक़  है तो फूल हवा की मुहब्बत में इतरा रहा है, जब पूरा आलम ही इश्क़ इबादत में गुम है तो माण्डव जैसा इश्क़ अंगेज़ फ़िज़ा वाला शहर इश्क़ के जादू से कैसे अछूता रह सकता है !! रूपमती और बाज़बहादुर का वह रूहानी इश्क़ जिसमे जिस्मानी ख्वाहिशों की  कोई मिलावट नहीं , मांडू को 'प्रेमियों के स्वर्ग' के ख़िताब से भी नवाज़ता है. यह वही इश्क़ है जो सुरों से शुरू होता है, रक़्स में घुलता है और सुरूर में ढल कर यों मुकम्मल होता है कि  रूह उसके जादू में कसक कर ख़ुद ब ख़ुद  गा  बैठती है " ऐ काश! किसी दीवाने को , हमसे भी मुहब्बत हो जाए………।"

कहते हैं धरमपुरी की राजकुमारी रूपमती सुरों की  देवी थी  और  माण्डव के राजकुमार वायज़ीद अली शाह उर्फ़
रूपमती महल 
बाज़बहादुर सुरों के शैदाई। रक़्स और राग के ये दोनों रूप बेशक पैदा अलग अलग हुए थे  पर इनके दिलों के टुकड़ों पर, जन्मते ही, नूर के बादशाह ने  'राधा' और 'श्याम' लिख दिया था. क़ुदरत के निज़ाम में इनका मिलना तय था, माँ नर्मदा की पूजा इनके मिलने की महज़ एक वजह हो गयी थी. राग दीपक और राग भैरवी के सुरों को संगत देते बाज़बहादुर के सुर जब, नर्मदा किनारे, राग बसंत गाते रूपमती के सुरों को छू जाते, मुहब्बत का हैरतअंगेज़ नग़मा फूट कर माण्डव की फ़िज़ा को गुलज़ार कर दिया करता था।  जिस्मों ने जिस्मों को न छुआ न चक्खा , पर रूहों ने रूहों के आग़ोश में जन्नत ज़रूर पा ली थी।  आवाज़ ने आवाज़ , अंदाज़ ने अंदाज़ और एहसास ने एहसास को कुछ ऐसे  छुआ कि रूपमती की तड़प ने बाज़बहादुर के सूने पड़े संगीत को आबाद कर ही दिया। कहते हैं, " प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं , बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं" की तर्ज़ पर खुद माँ नर्मदा की आज्ञा से रूपमती बाज़बहादुर के पास गयी थी।  
इस अफ़साने की हक़ीक़त से बस वही आश्ना हो सकता  है, जिसने मुहब्बत की हो, इश्क़ की आग में  ज़िंदगी को होम कर दिया हो और जिसे मेहबूब की बेचैनी आधी रात को तड़पा कर बिस्तर से उठा  तहज्जुद के लिए खड़ा कर देती हो.……। 
जहाज़ महल का आंतरिक सौंदर्य 
रूपमती की पूजा आराधना अधूरी न रह जाए , वायजीद अली शाह ने इसका माकूल इंतेज़ाम  किया था. रूपमती के इश्क़ को उसने इतनी ऊंचाई पर संभाल कर रखा कि आज भी रूपमती मंडप की सीढ़ियाँ उतरते , हाफ़तें -कांपते सैलानी कह बैठते हैं, " लिल्लाह! यह मुहब्बत क्या क्या करवा दे। " 

रूपमती महल आकर, माण्डव सीमा समाप्त हो जाती है. यह आख़िरी पड़ाव , इश्क़ की दावत देता , मांडव को अलविदा कहने को मजबूर करता है. सैलानी सोंचते हैं, सच है! क़ुदरत की कारीगरी के बीच मुहब्बत के बिखरते रंग सिर्फ माण्डव में ही देखे जा सकते हैं , कहीं वादियों में गिरते झरने की शक्ल में, कही कोहरे में उठते कलमे की शक्ल में।  कहीं निकलते सूरज की लाली के रूप में, कहीं अंधेरी शाम, जुगनुओं के झुंडों के बीच मनती  दिवाली की शक्ल में. 
जब अनमने क़दमों से घाट पार करते , चढ़ते चाँद की चाँदनी  को पीछे छोड़ , आप माण्डव से विदा लेते हैं, आपके होंठ बरबस ही गुनगुना उठते हैं, "रब की क़व्वाली है इश्क़-इश्क़ ......."  सच !! बेख़ुदी  में चूर करदेता है माण्डव का कालजयी सौंदर्य।   

शनिवार, 17 जनवरी 2015

तुम याद हमें भी कर लेना



जब झूम के उट्ठे सावन तो, तुम याद हमें भी कर लेना
जब टूट के बरसे बादल तो, तुम याद हमें भी कर लेना 

जब रात की पलकों पर कोई ग़मगीन सितारा चमक उठे 
और दर्द की शिद्दत से दिल भी जब रेज़ां -रेज़ां  हो जाए
जब छलक उठे बेबात नयन ,तुम याद हमें भी कर लेना 

पूरे चाँद    की    रातों    को   जब   हवा  चले ठंडी ठंडी
और कोई दीवाना पंछी जब चाहत से चाँद को  तकता हो
उस लम्हे की ख़ामोशी  को तुम अल्फ़ाज़ों में बांधो जब
और लिखो जब कोई ग़ज़ल, तुम याद हमें भी कर लेना 

सारी ख़्वाहिश बर आए जब, और दिल ख़्वाहिश से खाली हो
सब के बाद जो तेरा   दिल  , बस   चाहत  का  सवाली  हो
बेगर्ज़ मोहब्बत की चाहत में, दिल तेरा जब तड़प उट्ठे
ये तड़प  जो हद से बढ़ जाए ,तुम याद हमें भी कर लेना 

दिल का भोला बच्चा जब, सबसे बग़ावत कर बैठे
तन्हाँ-तन्हाँ , रुठा -रूठा दीवाना बन जाए जब
जब दुनिया भर से शिकवा हो और आँख से आंसू बह निकले
उस मासूम से लम्हे में तुम याद हमें भी कर लेना
- सहबा जाफ़री 

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

वह जब से शहर-ए -ख़राबात को रवाना हुआ



वह जब से शहर-ए -ख़राबात को रवाना हुआ 
बराहे रास्त मुलाक़ात को ज़माना हुआ 

वह शहर छोड़ के जाना तो कब से चाहता था 
यह नौकरी का बुलावा तो एक बहाना हुआ 

ख़ुदा  करे तेरी आँखें हमेशा हँसती  रहें 
ये आँखें जिनको कभी दुःख का हौंसला न हुआ 

कनारे सहने चमन सब्ज़ बेल के नीचे 
वह रोज़ सुबह का मिलना तो अब फ़साना हुआ 

मैं  सोंचती हूँ कि मुझमे कमी थी किस शै की 
कि  सब का  होके  रहा वह, बस एक मेरा न हुआ 

किसे बुलातीं हैं आँगन की चम्पई शामें 
कि  वह अब नए घर में भी पुराना हुआ 

धनक के रंग में साड़ी तो रंग ली मैंने 
और अब ये दुःख कि  पहन कर किसे दिखाना हुआ 

मैं  अपने कानों में बेले के फूल क्यूँ  पहनूँ 
ज़बाने रंग से किसको मुझे बुलाना हुआ 
                                             - परवीन शाकिर