गुरुवार, 11 दिसंबर 2014
मंगलवार, 9 दिसंबर 2014
वो अक्स-ए -मौज -ए गुल था
वो अक्स-ए -मौज -ए गुल था, चमन चमन में रहा
वो रंग रंग में उतरा , किरन किरन में रहा
वो नाम हासिल-ए -फन, हो के' मेरे फन में रहा
कि रूह बन के मेरी सोंच के बदन में रहा
सुकूने दिल के लिए मै , कहाँ कहाँ न गयी
मगर ये दिल कि सदा उसकी अंजुमन में रहा
वो शहर वालों के आगे कहीं मोहज़्ज़ब था
वो शख़्स जो शहरों से दूर बन में रहा में
चराग़ बुझते रहे, और ख़्वाब जलते रहे
अजीब तर्ज़ का मौसम मेरे वतन में रहा
- परवीन शाकिर
सोमवार, 1 दिसंबर 2014
दयार -ए -दिल की रात में,
दयार -ए -दिल की रात में, चराग़ सा
जला गया
मिला नहीं तो क्या हुआ , वह शक्ल तो
दिखा गया
जुदाइयों के ज़ख्म,
दर्द-ए -ज़िंदगी ने भर दिए
तुम्हे भी नींद गयी , हमें
भी सब्र आ गया
ये सुबह की सफेदियां, ये दोपहर की
ज़र्दियां
अब आईने में देखता हूँ , मै कहाँ
चला गया
पुकारती हैं फुर्सतें , कहाँ गयी वो सोहबतें
ज़मीं निगल गयी उन्हें, या
आसमान खा गया
वो दोस्ती तो ख़ैर अब , नसीब-ए
-दुश्मनी हुई
वो छोटी छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी
चला गया
ये किस ख़ुशी की रीत पे ग़मों को नींद
आ गयी
वो लहर किस तरफ गयी, ये मैं कहाँ
समा गया
गए दिनों की लाश पर पड़े
रहोगे कब तलक
उठो अमलकशों उठो ! के आफ़ताब
आ गया
शायर ए नामालूम
प्रस्तुति : लोरी
बुधवार, 19 नवंबर 2014
कौन कहता है अच्छे दोस्त नहीं होते....!!!!
आज पूरे हो गए हैं है चार साल हमारी प्यारी दोस्ती को :
१९ नवम्बर २०१० को रमन जी से नेट पर हुई पहली मुलाक़ात। और सुख दुःख की छुटपुट घटनाओ में एक दूसरे का दर्द बाँटते प्यारे -मीठे क्षण। मैं रमन जी की आत्मीयता एवं स्नेह के लिए ईश्वर की आभारी हूँ:
१९ नवम्बर २०१० को रमन जी से नेट पर हुई पहली मुलाक़ात। और सुख दुःख की छुटपुट घटनाओ में एक दूसरे का दर्द बाँटते प्यारे -मीठे क्षण। मैं रमन जी की आत्मीयता एवं स्नेह के लिए ईश्वर की आभारी हूँ:
(रमन भगत : ग़रीबों को वस्त्रदान करते हुए:
जीना इसी का नाम है…। )
शहज़ाद भाई, हौंसले के क़दमों पर खड़े मेरे दूसरे अज़ीज़ दोस्त. २० नवम्बर २०१० दिन के तीन बजे पहली बार नेट पर मिले, मेरी प्रेरणा का स्त्रोत बने व अब मेरे आत्मीय जनों में शामिल है। उनके जैसा प्यारा दोस्त पाकर मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ:

(शहज़ाद भाई: किसी की मुस्कुराहटों पे' हो निसार)
हमारी दोस्ती क़ायम दाईम रहे , आपके जीवन आदर्श इसी तरह युवाओं के लिए प्रेरणा बनते रहें और आप तमाम बुलंदियों को छुएँ।
-अमीन
दोस्त लोरी।
बुधवार, 10 सितंबर 2014
नहीं है ........
तुझसे कोई गिला नहीं है
क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है
बिछड़ के तो न जाने क्या हाल हो
जो शख़्स कभी मिला नहीं है
जीने की तो आरज़ू ही कब थी
मरने का भी हौंसला नहीं है
जो ज़ीस्त को मो'तबर बना दे
ऐसा कोई सिलसिला नहीं है
खुशबू का हिसाब हो चुका
और फूल अभी खिला नहीं है
सरशारी-ए - रहबरी में देखा
पीछे मेरे काफला नहीं है
एक ठेस पे दिल का फूट बहना
छूने में तो आबला नहीं है
- परवीन शाकिर
बुधवार, 27 अगस्त 2014
चल रे मटके टम्मक टूँ
उन प्यारे दिनों के नाम, जब माँ रोज़ ही सोने के पहले यह सब सुना करती थी :
हुए बहुत दिन बुढ़िया एक
चलती थी लाठी को टेक
उसके पास बहुत था माल
जाना था उसको ससुराल
मगर राह में चीते शेर
लेते थे राही को घेर
बुढ़िया ने सोंची तदबीर
जिससे चमक उठी तक़दीर
मटका एक मंगाया मोल
लंबा लंबा गोल मटोल
उसमे बैठी बुढ़िया आप
वह ससुराल चली चुपचाप
बुढ़िया गाती जाती यूँ
चल रे मटके टम्मक टूँ
- बताइये कौन है इस बालगीत का रचनाकार
शुक्रवार, 22 अगस्त 2014
मोहब्बत बरसा देना तुम, सावन आया है …।
" बस भी करो यार! तुम्हारे बगैर हम क्या मज़े करें!! " उसने तुनकते हुए कॉल डिस्कनेक्ट की और गुस्से में लाल भभूका मुँह करते हुए, खिड़की के पल्ले से जा लगी. बेवजह सारा गुस्सा, अगस्त के सूरज को कोसने में लगा दिया, " कमबख्त सारा पानी सोंख कर पता नहीं अपनी अम्मा को पिलाएगा या क्या! " और ये गर्मी ये गर्मी ! यह उमस!! और और यह पसीना!!! उसने गुस्से में पावों की सैंडल निकाल ड्राइंग रूम के कांच को निशाना बनाया।
"बस तो करिये भाभी ! हम लोग इस गर्मी के आदी हैं, क्या हो गया है आपको !"
ज़ीशान बाथरूम से बाहर आ सिर्फ इतना बोल कर यों खिसका मानो , ज़्यादा बोलने पर टैक्स लगता हो.
ज़ीशान बाथरूम से बाहर आ सिर्फ इतना बोल कर यों खिसका मानो , ज़्यादा बोलने पर टैक्स लगता हो.
अर्शी कुछ न बोली , दूसरी सैंडल निकाल उसके जाते ही, बंद होते दरवाज़े पर दे मारी। क्या जवाब देगी बच्चों को! कैसे कहेगी छह महीनों से जो वादा किया जा रहा था, वह महज़ सब्ज़बाग था ! आरिश तो मान लेगा पर अना तो मचल ही जाएगी। अल्लाह! क्या सीखेंगे ये बच्चे अपने बाप से! " फर्स्ट डे- फर्स्ट शो " जाने कब से चिल्ला रहे थे, आज फिल्म रिलीज़ हुई और मियाँजान को ऑफिस का काम निकल पड़ा कितने दिन से बच्चे सोंच,रहे थे " ये होगा, वह होगा।" अब क्या जवाब देगी बच्चों को! और सबसे बुरी तो बेचारी खुद उस पर ही बीती, कल पार्लर गई थी, आज जतन से तैयार हुई, मिया मोहब्बत से तकते हुए बोले, " जान! बॉस का फोन है , बस यूँ गया यूँ आया" दिल तो धड़ाक से ऐसे बैठा था, जैसे बॉस न हुआ सास हो गई.
अब! अल्लाह, बच्चों की तरह ठुनक उठी वह. बच्चे बावले भी तैयार होकर आ गए थे।
गुमसुम गुमसुम बैठी ही थी कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। अब कौन आया ! देखा, बरसों पुरानी दोस्त "कीर्ति" खड़ी थी, हर पहली बारिश, सावन की तरह झूम के दरवाज़े पर आ जाती थी, घर के कड़े पहरे और काम काज सबके बीच से गोटियां जमाती ऐसे उड़ा ले जाती कि कोई चूँ भी न करे , गांधी हॉल के झूलों, सराफे की चाट, और 'रीगल' की एक मूवी के बीच , हर पहली बारिश का पहला दिन यादगार बना लेते थे हम दोनों और कम्बख़्त गाजर मूली की तरह झूठ बोल, मुझे वापिस दादी अम्मी के पास जमा भी करा जाती थी।
" नीचे कार खड़ी है चल! " उसका वही अंदाज़
नहीं यार! अब ससुराल से ऐसे कैसे पॉसिबल है..... मैं वही सहमी सहमी।" अंधी! तुझे दिखता नहीं अगस्त आ गया, पूरा इंदौर सूखा है , जानती है क्यों ! सब तेरी वजह से! मायके आ, मुझसे नही मिली!! सज़ा है उसकी। अरी कमबख़्त ! मेरा नहीं मौसम का तो लिहाज़ किया होता! अरी दो सहेलियां न मिले तो बारिश भी नहीं होती. डालो बच्चों को गाड़ी में, मेरे बच्चे तो मैं नानी के पास जमा करा आयी हूँ"
" पर बच्चे! उनके अब्बू ! उनसे क्या कहूँगी मैं !" मेरे समझ में नही आ रहा था।
" ओ हरीश-चन्द्र! मेरे बच्चोँ के साथ खेलेंगे तेरे बच्चे! अभी ही नया झूला लगाया है अम्मा की छत पे. और तू तो मेरी देवरानी को खून देने जा रही है कौनसा सराफे की चाट खाने जा रही है !" उसने एक आँख दबा कर मुझे मुस्कुरा कर देखा। मैं धक धक होते दिल से गाडी मैं बैठी; कमबख़्त ऊंचे सुरों में गा रही थी : " मोहब्बत बरसा देना तुम सावन आया है…। "
सोमवार, 11 अगस्त 2014
बुधवार, 4 जून 2014
पर्यावरण दिवस मुबारक
नहीं छेड़ते पंछी सुबह
ताज़गी की सरगम
नहीं जागते हम अब
भौर की उजास के साथ
वीडियो गेम की
लत में डूबा बचपन
सुनता है
मोबाइल में लोरी
पहला प्यार
होता है अब
केमिस्ट्री लैब में
और करहाने लगता है
फ़िज़िक्स लैब की
सीढ़ियों तक आते आते
मॉल में
बुनते हैं सब सपने
घास, पंछी, दूब नदियाँ
दूर तक नही आती
ख़्वाब के किनारों में
कैमिकल की नकली बारिशों में
भीगती प्यार की कोमल भावनाएं
नक़ली गुलाब की कलियाँ थामे
नाचती हैं
नक़ली पेड़ों के इर्द गिर्द
भीड़ भरी सड़कों की
धूल भरी आपाधापी
पैदा करती है
ऐसी ग़ज़लें
जिनमे नहीं होती आक्सीजन
वी ऍफ़ एक्स के
इफेक्ट्स से पैदा हुए
चाँद के इर्द गिर्द
हाले को देख ,
ए. सी. में बैठे
बच्चे गुनगुनाते हैं
चन्दा मामा दूर के
- लोरी
इमेज : गूगल से साभार
शनिवार, 24 मई 2014
एक प्याली चाय
एक कसक
एक खलिश
कुछ मिला अनमिला
कुछ गुमा अध गुमा
कुछ अधूरे ख़्वाब
कुछ नामुकम्मल ख्वाहिशें
सबकी टूटन
और नए रास्तों पर चलने की हिम्मत
कितना कुछ बाँट बूंट कर
हल्का कर देती है
एक प्याली चाय
अम्मा पास न हो तो
दुलार भी देती है
जीने का हौंसला भी दे जाती है
और दे जाती है
गर्म भाँप में धुँआते से दिल को
इतवार की सुबह
देर तक सोने के
रंगीन सपने
- लोरी
रविवार, 27 अप्रैल 2014
मैं और तुम गर…।
नाश्ता, खाना, बच्चे, कपडे, होमवर्क, बजट, पति का गुस्सा, बीमा की पॉलिसी , इनका ब्लड प्रेशर , मेरी शुगर, माँ की बीमारी, सास के दर्द , देराणी - जेठानी की रीत रस्मे और इनके बीच सिसकते उसके अरमान, समाज, दुनिया,घर परिवार!!!एक सुबह हुई नही कि इतनी चिन्ताएं। और रेडिओ वाले गाना सुनवा रहे हैं:
कितने हंसी मौसम हो जाते
मैं और तुम गर हम हो जाते।
शुक्रवार, 7 मार्च 2014
सोमवार, 20 जनवरी 2014
इश्क़ की दास्तान है प्यारे....
क्वीन्स - नैकलेस से कोहे- फ़िज़ा तक का रास्ता उसने बड़ी बेज़ारी से तय किया। घर में दाखिल हुई तो राहदारी में खिले अपने पसंदीदा फूलों पर एक नज़र भी नहीं डाली। तड़ाक फड़ाक गेट खोल , बिना किसी से बात किये, सीधे अपने कमरे में दाख़िल। हैल्मेट उतारा तो ख़ूबसूरत बालों की अलकें तड़प कर उसके मासूम चेहरे पर बिखर आयीं। मैं जो डाइनिंग टेबल पर बैठी सूप गटक रही थी और उसके मिजाज़ से ख़ूब वाक़िफ़ थी, उसके इस वालिहाना अन्दाज़ पर हैरत से उठ कर उसके पीछे पीछे चली आयी, दिल ही दिल में घबराती सी। बज़ाहिर मुतमईन दिखने में मेरा भी कोई सानी नही. " क्या हुआ भई !" मैंने मुस्कुराते हुए पूछा।
ओह मेरे रब जी ! उसके चेहरे पर नज़र पड़ते ही मेरे हवास क़ाबू में नहीं रहे। गोरा चेहरा , घबराहट से सुर्ख हो रहा था, लाल भभूका ! शायद बहुत रोई हो। चेहरे पर हल्की सूजन रोने की ही तो अलामत है, आँखे ज़ार ज़ार पनीली हो दर्द की शिद्दत बयान कर रहीं थीं। और तकिये में मुँह छिपाए वह आने रब से बेइन्तेहाँ शिकवा कर रही थी " रब्बा ! तू मेरे ही साथ ऐसा क्यों करता है, मालिक! मेरी क्या ख़ता थी! जवाज़ से मंगनी भी इसलिए टूटी कि वह अज़रा को मोहब्ब्त करता था; अनवर और अफ्शां का झगड़ा भी इसलिए हुआ कि उन्हें लगा कि मै उनके बीच आ रही हूँ; और अब ये! …… मैंने कब मोहब्ब्त करने वालों के बीच आना चाहा था.…… " वह सिसक रही थी।
हाई ओ रब्बा ! मेरी तो धड़कने ही रुक गयी! जिसका डर था वही हुआ, यहाँ तो इसे मोहब्बत भी हो गयी और वह इसे छोड़ कर चला भी गया और इधर हमारे देव को भी ख़बर नहीं ! हाय ये मेरी बेबस बुलबुल !!! बुरा हुआ, बहुत बुरा ....... मैं एक बेबस बन्दे की तरह आसमान के तरफ देख अल्लाह का आसरा करने लगी। अब क्या करुँ ! मिनी, रज़िया आलिया , नीना , फ़ैज़ी सबको फोन लगा दिया, बेचारी की तबियत तो बहलेगी, वरना उस कम्बख्त की यादें तो फूल सी बच्ची की जान ही ले लेंगीं। तब मैं कहूँ बेगम बार बार शादी के लिए न क्यों कर देती है!
सब सहेलियों ने मौक़े की नज़ाकत और मस'ले की संजीदगी को समझा, सब की सब तुरत-फुरत हाज़िर।ऐसे मौक़े पर हम नहीं तो कौन सहारा देगा अर्शी को! कितना बुरा इंसान होगा वह! मैं सोंच ही रही थी कि राहदारी की आवाज़ों ने मेरे कान खड़े कर दिये , " कम्बख्त का नास जाये , बुरा हो मनहूस-मारे का! " सच तो है , सही तो कह रहीं हैं सब !
वह सब अर्शी के कमरे में जा उसे सँभालने में लग गयीं; किसी ने ज़बर्दस्ती मुँह धुलाया, किसी ने पानी पिलाया। " आलिया! ज़रा अलमारी से वह एलोवेरा पैक उठा दो!" अर्शी जब सँभली , उसके मुँह से निकला। शुक्र है, सम्भली तो! मरने दो उसे! हमारी अर्शी के लिए कोई कमी है क्या लड़कों की!
मैं सब के लिए चाय- पानी का बंदोबस्त करने चली गयी।
" वैसे हमारी नॉलेज के बाहर ये तुझे मिला कहाँ! " मिनी ने धीरे से तब्सिरा किया।
" कौन ?" अर्शी पैक लगाते लगाते धीरे से चौंकी
" अरे वही! जिसके इश्क़ ने ऐसा हाल बना दिया " फ़ैज़ी बोली .
"दिमाग तो ख़राब नहीं हो गया तुम्हारा!" उसने सबको झिड़का.
"हाँ! आपी ने फोन लगा कर तो बिल्कुल यही कहा था!" सब की सब एक साथ बोलीं.
मेरे चाय लेजाते क़दम परदे की औंट हो गए
" ओह्ह ! मुझे नहीं! किसी और को इश्क़ हुआ, और मुझे सजा मिली "
वह तफ़सीर बयान करने लगी, " एक ततैया और उसकी माशूक़ हवा में इश्क़ फरमाते हुए मेरे सर से टकराए. आशिक़ ज़्यादा रोमेंटिक होने लगा तो शरमा कर माशूक़ ने मेरे हैल्मेट में पनाह ले ली। अब घुस तो गयी, अपनी मारी किस्से कहे , कम्बख्त बाहर निकलने को जगह तलाशती काटती रही अंदर. काट काट कर मुँह सुजा दिया; इधर आशिक़ साहब हैल्मेट के आसपास मंडराते , बोले जा रहे थे, 'बसन्ती ! मैं आ रहा हूँ', और सच्चे आशिक़ ने घर तक पीछा नहीं छोड़ा ! घर आकर हैलमेट निकला तो घायल माशूक खिड़की की तरफ़ उड़ी, और आशिक़ ने भी एक किस कर मेरा पीछा छोड़ा। ."
ये आपी भी ना ! कहानियाँ बना डालतीं हैं …….
सब की सब हैरतज़दा, खिड़की के पल्ले पर रोमांस करते ततैया के जोड़े को घूर रहीं थी, और मैं! सोच रही थी " शुक्र है अर्शी को इश्क़ नही हुआ.."
शनिवार, 4 जनवरी 2014
घर जाने का मौसम
मोहब्बत जब लहू बन कर
रगों में सरसराये तो
कोई भूला हुआ चेहरा
अचानक याद आये तो
क़दम मुश्किल से उठते हों
इरादा डगमगाए तो
कोई मद्धम से लहजे में
तुम्हे वापिस बुलाये तो
ठहर जाना, समझ लेना
कि अब वापिस पलटने का
अमल आग़ाज़ होता है
कभी तन्हाइयों का दर्द
आँखों में समाये तो
कोई लम्हा गुज़िश्ता चाहतों का
जब सताये तो
किसी की याद में रोना
तुम्हे भी खूब आये तो
अगर तुमसे तुम्हारा दिल
किसी दिन रूठ जाये तो
ठहर जाना, समझ लेना
कि अब वापिस पलटने का
अमल आग़ाज़ होता है
कभी अनहोनियों का डर
परिंदों को उड़ाये तो
हवा जब पेड़ से एक ज़र्द सा पत्ता गिराए तो
ठहर जाना, समझ लेना कि
अब वापिस पलटने का अमल आगाज़ होता है
-अनजान
प्रस्तुति : लोरी अली
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