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मंगलवार, 25 जून 2024

आख़िरी औरतें



        वे कौन सी औरतें थीं जो तड़के उठ, आँगन बुहार, दरख्तों में पानी दे, आफताब की तुलू होती नर्मी को आँखों में जज़्ब कर लिया करती थीं? वे कौनसी औरतें थीं जो कोहबर की मुंडेरें साफ़ करतीं, चाहर दिवारी से गर्दन निकाल मोहल्ले के सुख दुःख में शरीक हो जाया करती थीं?  वे कौन सी औरतें थीं जो आँगन के परिंदों की क़ुव्वत आज़माने को थाल भर अनाज फटक कर खुर्री खाट पर खुला छोड़ जाया करती थी? अज़रा को इमला लिखवाते लिखवाते मैं ज़रा देर को रुकी ही थी कि मोबाइल बज उठा , “सुबह सादिक़ इंदौर से निकल लिए थे कि सीमा की बेटियों के लिए गुडिया दे आयें , तुम शैड्यूल मैं कहीं नहीं थीं , पर कमबख्त दिल के किस कोने में कुण्डली मारे बैठी हो, कि छूटती नहीं जो मुंह लगे जाती हो!” उधर से एक जली कटी पर बेहद मानूस आवाज़ कानों में गूंजी. मैं इस जज़्बात से हंसी गोयां जलतरंग बज उठे हों.   “क्या हुक्म है मेरे आक़ा!”  बड़े ड्रामाई अंदाज़ में मैंने भी सवाल दाग़ा. “ कुछ नहीं! बस फ़टाफ़ट रेडी हो लो, गुडियें देकर अभी आते हैं . मैंने फौरी तौर पर अज़रा को रिहा किया और ख़ुद तितलियों की रफ़्तार से वार्डरोब से कपडे निकाल तैय्यार होने लगी. मेरी बेहद अज़ीज़ और करीब दोस्त मय दूल्हेभाई नमूदार होने वाली थीं और अगले ही लम्हें हम सीमा की गुड़ियों को गुडियें देने वाले थे.

सीमा की बेटियों को क्या सोचा, गोयां  वक़्त के कोह ए काफ से, लम्हों की एक फाख्ता ही यादों के खोशे थामे निकल आई हो; उसकी बादामी चोंच गठरी बनी चीकू को सीमा की गोदी में गिरा कर देवमालाई धुंध में फुर्र हो गयी हो और शाखे -सनोबर से चाँद जब झांका हो, सीमा का हाथ थाम, उसकी टांगों से चिपकी चैरी वहाँ पहले से ही मौजूद हो. इनकी पैदाइश हम सखियों के लिए ऐसी ही जादू भरी थी जैसे लडकियां न हों झील किनारे कलोलें करती परियां हों. लिल्लाह!  कितनी नफासत, कितना भोलापन और कितनी ताज़गी! मानों रब की तखलीक का मुकम्मल शाहकार हों. एक हिरनी सी चंचल दूसरी बत्तख सी बेलगाम. एक की आँखों में शरारत तो एक सरापा शरारत. एक जब गाती तो उसकी आवाज़ चाँद की रोशनी में साहिली रेत पर आराम करती जलपरियों को भी रक्स करने पर मजबूर कर देती और दूसरी अपनी हीरे सी अँगुलियों को हरकत देती अपने नाज़ुक पैरों को ठुमकाती तो ऐसा लगता जैसे किसी कठपुतलीसाज़ ने डोरियों की मदद से एक नाज़ुक कठपुतली ही स्टेज पर उतारी हो. हाथ लगाने की कोशिश करो तो चिड़ियों सी फुर्र हों जातीं .

 मेरे ज़हन में पिछली दफ़े ईद के मौक़े पर इनसे हुई  मुलाक़ात ताज़ा हो आई. तब मम्मा और पापा अपनी बुझती निगाहों के बेशकीमती जुगनुओं के साथ मुझसे भी ज्यादा इनका इंतज़ार कर रहे थे. मम्मा ने इसरार कर, बेटियों के लिए पता नहीं क्या क्या अलोना सलोना बनवा लिया था. जब ये आईं तब मेरा घर घर था, और जब गईं बारिश के बाद का भीगा भीगा बाग़ीचा हो गया था. नन्हे मुन्ने बर्तन, दीगर छोटे मोटे बबल मेकर्स, कुछ सीपियाँ और मेरे पंसदीदा नन्हें नन्हें जानवर (जिन्हें मैं चालीस पार भी मर मर कर खरीद लाई थी) सभी खुश होकर अपने अपने खोलों से बाहर निकल आये थे और फिर मम्मा के कहने पर एक हफ्ता मैंने मेज़ ही नहीं संवारा था.  कितनी ही आहटों में, घर में अपने होने के एहसास छोड़ गईं थीं दोनों. एक , जैसे पहली बहार की जानिब बढती नौशागुफ्ता कली तो दूजी, “ चाँद का टुकड़ा, फूल की डाली, कमसिन, सीधी, भोली भाली. अल्लाह रे ! लड़कियां थीं कि  मजाज़ की दो ज़िंदा नज्में. जो एक बार उनकी बातों के रेशम में उलझे , रोज़ ब रोज़ उलझना चाहे. मैं जज्बातों के समन्दर में गोते लगा ही रही थी कि सखी मय दुल्हेभाई दरवाज़े पर हाज़िर थी. जल्द अज़ जल्द बगैर किसी आवभगत मैं उन दोनों की कार में सवार हुई और मौसम जैसे मुस्कुरा उठा. बारिशें यों बरसीं कि आज ही पूरा बरस लेंगीं और फिर यों हुआ कि शहरे झील के बनफ्शी  बादल बिजली के हमआहंग  जल थल एक कर बैठे. बेचारे दुल्हेभाई! निरे हिन्दुस्तानी आईक्यू वाली बेगम और बेहद बेअक़ली  साली के बीच (अल्लाह अलिक्सा का भला करे, उसी के दम पर)भीगते भटकते  सीमा के घर पहुंचे. इधर आसमानी दोशीज़ा की आँखों में बिजली काजल आंज रही थी उधर सखी के इसरार दूल्हे भाई से बढ़ते जा रहे थे , “ साहब ! किनारे से दो मोतिया और आसमानी छतरियां भी ले दीजिये, नुक्कड़ से दो चार टॉफियाँ  भी ले लीजिये.” गरज़ ये कि बेटियों के लिए आज सारा जहान ख़रीदा जाने वाला था.

अल्लाह अल्लाह कर के अजन्ता परिसर आये. और भीगते भागते मौसम के बीच जो सखी के घर क़दम रखा तो मालूम चला कि बेचारी अभी अभी ही महेश्वर से लौटी है . (हमें उसे यूं ज़हमत देते हुए हुए ज़रा तकल्लुफ न हुआ कि आख़िर फिर उस गाने का क्या होगा  जिसमे लिखा है , “ दुश्मन न करे दोस्त ने वह काम किया है.....”)  अभी तो वह बेचारी नर्मदा की सस्त्र्धारा के हज़ारहाँ नसों में भीगती सीमाब चाँद की उन्नाबी थकन से उबर भी न पाई थी कि हम मेहमान बने नमूदार हो गए थे. हो सकता है उसने हमारी आमद पर हवा में हाथ फैला सुरमई अंगडाई ले मारे थकन और कोफ़्त के  एक ज़ोरदार गाली दी हो पर उससे हमारी ग़ैरत पर ज़रा भी असर न हुआ और मय ख़ालिस हिन्दुस्तानी बोसे , हमने उससे इस्तकबाल वसूल लिया. चिंघाड़ती हवाओं के शरीर झोंके हमसे पहले घर में दाखिल हो चुके थे, और हमारी आमद पर बेहद हैरान धान की दो सब्ज़ बालियों सी दो नन्ही परियां हमारे इस्तकबाल में एक दूसरे से सटी खडीं थी. मेरी दोस्त ने आगे बढ़ कर उन्हें थाम लिया, सीमा मुझसे लिपट गई और दूल्हेभाई  नज़दीक की खिड़की से चिंघाड़ते मौसम में अपनी कार की हिफाज़त का मुआयना करने लगे. चैरी,चीकू हमें ड्राइंग रूम में बैठाने लगीं और सीमा पानी लेने किचन में दाखिल हुई. गुड़ियों का सब्ज़ डिब्बा खोला गया और झिलमिलाते लिबास की गुलाबी विलायती गुडिया बेसाख्ता सामने आ गई. गुडिया क्या थी , लगता था सचमुच की कोई विलायती दुल्हिन जैसे अब बोली कि तब बोली. उसकी बिल्लौरी आँखों में चांदी के हज़ारों शम्मादानों की झिमिलाहट झल मार रही थी, और गुलाबी नारंजी बाल चिनार के किसी घने दरख्त से दिलावेज़ ठंडक का इशारा दे रहे थे. क्रिश्चयन दुल्हिन के अधखुले वेल के शबनमी धुंधलके उसके गुलाबी गालों की खूबसूरती में बेइन्तेहाँ इजाफा करते लगते थे और उसके बनफ्शी लिबास की चमक! उफ़ अल्लाह , लगता था जैसे बर्फ़ीली चट्टानों पर आफताब की किरनों का रक्स चल रहा हो. लो इतनी खूबसूरत बेटियों के लिए इससे अच्छी गुडियें भी भला बनती होंगी!!! बेटियें गुडियें देख रहीं थीं और हम सब निहाल होकर उन्हें देख रहीं थी.

तभी चीकू भाग कर गुड़ियों का पिटारा उठा लाई. उसमे लम्बी, मोटी, छोटी नाटी हर किस्म की गुडिया मौजूद थी. किसी के एक कान नहीं था तो  किसी के हाथ और टांग  फौत हो गए थे. किसी के ढ़ीले हुए लिबास की ज़रा सी फिसलन से हज़ारों नग्मे फूटने लगते थे तो किसी के लहराए दुपट्टे पर शायर कसक कर दिल थाम लेते थे.   मां के मेकअप से किसी को ख़ूबसूरत बनाने के चक्कर में बेढब कर दिया गया था तो किसी को काला पोत दिया था. रंगे पुते चेहरे कहीं मुहीब शोले उगल रहे थे तो कहीं हंसी की शबनमी फुहारें फूट पड़ती थी. “और अब बेचारी यह नई गुडिया भी कुछ दिन में ऐसी हो जायेगी” चैरी के तंज़ पर चीकू ने उसे घूरा. “ पर कोई बात नहीं! अभी तो सब उसका खैर मक़दम करने ख़ुद चल कर आई हैं” ,अगले ही लम्हे मेरी सखी ने सब संभाल लिया. कोई गुडिया एक्सीडेंट में पैर तुड़ा बैठी थी कोई आँख खो आई थी. किसी का हाथ घायल था. बक़ौल चीकू , “ सब कामकाजी गुडियें थीं और आखिरकार बड़े बड़े मुल्कों में ऐसे छोटे छोटे वाक़ियात होते रहते हैं”

मौसम अपने साज़ पर संगत दे रहा था और सीमा अपने किचन में खाना बनाने में मशगूल. “ क्यों न इसका नामकरण संस्कार कर दिया जाए” मेरी पंडिताइन सखी हुमक कर बोली . हाँ हाँ ज़रूर . चीकू जोश में आ गयी . मारे हंसी के चैरी के दाहिने गाल में गड्डा पड़ गया और दूल्हे भाई ज़रा देर को थोड़ा सा मुस्कुरा लिए. मैंने गुड़ियों की तरफ से राय पर “हाँ” की मोहर लगा दी और हम सब बारिश के इस सुरमई दिन को यादगार बनाने में लग गए. आनन् फानन में सब हरकत में आ गए. मेरी पंडिताइन सखी ने पूजा वाली गादी संभाल ली; ईवेंट मैनेजमेंट चैरी की तरफ़ से हुआ; गुड़िया चूँकि चीकू की गोद में दी गई थी सो बतौर “गुड़िया की अम्माँ”  मैंने जल्द अज़ जल्द अपने दुपट्टे की धानी साड़ी पहिना उसका आँचल चीकू के सिर पर  डाल  दिया. खाने दाने के इन्तेज़ामात गुडिया की नानी उर्फ़ सीमा की तरफ से थे और     फोटो और विडियोग्राफी  दुल्हे भाई के  ज़िम्मे डाल दी गयी थी.पूजन के लिए धूप दीप, अगर, पाँच फल और दीगर इन्तेज़ामात हो गए थे और ख़ास मेहमान की हैसियत से जनाबे मुहतरम “ छोटा भीम” ने शिरकत की थी. 



आख़िरकार कई नाम सुझाए गए. हिन्दी , चीनी , तुर्की रूसी और अज़रबेजानी नामों के ढेर लगा दिये गये. पर अपने आँचल से अपनी नाज़ुक गर्दन हिला चीकू बिया बस इनकार ही करती रहीं. “आपका मसअला क्या है भई, मुहूर्त बीता जा रहा है”, पन्डिताइन सखी मारे कोफ़्त के तन सी गयी. “गुडिया अंग्रेज़ है और नाम उस तेहज़ीब के नहीं”  सधी हुई आवाज़ में बेहद सलीके से चीकू जी ने मसला बताया जो क़तई जाइज़ था चुनांचे मुहरत को रोक लिया गया , नए नामों पर हरकत हुई और समन्दरों की लहर से लिबास को देख मेरे दिल ने कहा , समन्दरों की बेटी का नाम क्यों न “ओशीन” हो! अपनी पतली बाहों से रज़ामंदी का इशारा दे चीकू ने नाम कुबूल किया और सभी गुड़ियों के बीच मानों खुशी की लहर दौड़ आई. मन्त्रों की आवाज़ और अगर की खुशबू के बीच नाम रखाई का काम अंजाम दिया गया. और प्रसाद बाँट दिया गया. सबने खूब  तालियाँ पीटी और दुल्हे भाई ने सारे रस्मों रिवाज़ को कैमरे में क़ैद कर उसे यादगार बना दिया कि अचानक “एक मिनिट!” नाच गाने के बीच ब्रेक लगाती चीकू की आवाज़ गूंजी, “ गुडिया हिन्दुओं के घर आई है, ब्राह्ममण मौसी उसे लाई है, उसका नाम मेरी मुस्लिम मौसी ने रखा है और ख़ुद गुडिया क्रिश्च्येन है, अब भला ऐसी गुडिया का धरम स्कूल के फॉर्म में क्या लिखा जाएगा !”  चीकू संजीदा हो गई थी.

लिल्लाह! “इन्हें फिर्कापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे / ज़मीं से चूम कर, तितली के टूटे पर उठाते हैं”  मुनव्वर राना साहब आहिस्ते आहिस्ते मेरे कानों में सरगोशियाँ करने लगे. “ यह गुडिया हमारी गंगो जमुनी तहज़ीब का बेहद सुनहरा वर्क है प्यारी ! मैंने उसमे नाजुक बालों में हाथ फिरा उसे बाहों में भर लिया. यह हमारे मुल्क की साझी विरासत का ज़िंदा शाहकार है; इस बात की चश्मदीद गवाह कि आर्यों, शको, हूणों, कुषाणों और मुगलों में से वही लोग यहाँ खेल पाए जिनकी नीव मोहब्बत रही ... आख़िरकार हमारी मिलीजुली तहज़ीब किसी नावेल का मकालमा या अखबार की सुर्खीं तो नहीं थी कि जिसे फरामोश कर दिया जाए....मशीन लर्निग और आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस के दौर में यह गुडिया इंसानियत का आख़िरी निशान है.... उन औरतों की आख़िरी विरासत जिनके लिए तारीख पूछा करेगी , वे कौन औरतें थीं जो आफताब की तुलू होती नर्मी को आँखों में जज़्ब कर लिया करती थीं? वे कौनसी औरतें थीं जो कोहबर की मुंडेरें साफ़ करतीं, चाहर दिवारी से गर्दन निकाल मोहल्ले के सुख दुःख में शरीक हो जाया करती थीं?   वे हिन्द की शेरनियाँ ....  यह गुडिया उनकी विरासत ..इसका धरम हिन्दुस्तान है , यह गुड़िया हिन्दुस्तानी है. ..चीकू की आँखे चमक गईं , हमने आमरस और लड्डुओं के साथ सीमा के हाथों बना बेहद लज़ीज़ खाना खाया. और वापसी में मै सोच रही थी मग़रिब से मशरिक़ तक जंगों के बीच झूलती ज़मीन में अम्नो अमां की तहज़ीब ज़िंदा रखने वाली हम वे आख़िरी औरते होंगी कि आने वाले नौनिहाल जिन्हें शायद किताबों में तलाशेंगे.                                

        

बुधवार, 27 मार्च 2024

फूल खिलते हैं

फूल खिलते हैं
जब उड़ती हैं बेटियां तितलियों सी
बहती हैं नदियों सी
और उड़ा देती हैं पानी के छीटे
शराराती झरनों सी

फूल खिलते हैं
जब गूँजती हैं बेटियां
हवाओं में सरगम सी
फिज़ाओं में मद्धम सी
बारिशों में रिमझिम सी
आँगनो में छम छम सी

फूल खिलते हैं जब
खुलती हैं बेटियां
सुबहों में शंख सी
उड़ानों में पँख सी
फागुन में रंग सी
बारिशों में अंग सी

फूल खिलते हैं कि
जब नहीं होती ज़न्जीरे
बेटियों के इर्दगिर्द
बजते हैं मंजीरे
बेटियों के इर्दगिर्द
बहती हैं पुरवाई
बेटियों के इर्दगिर्द
गूँजती हैं शहनाई
बेटियों के इर्दगिर्द

फूल खिलते हैं
जब बढ़ती हैं बेटियां
जंगल के बन्फशाँ सी
अरबीयों के रम्शां सी
माथे पर अफ़शां  सी
अम्बर में कहकशां सी

फूल खिलते हैं जब नहीं होती
खरीफ की फसलों  सी
बेटियों की कटाई
बागड़ की बल्लर सी
बेटियों की छंटाई
ड्रॉइंग रूम के  गमले सी
बेटियों की बोन्साई
पीटने पर बेटों को
बेटियों की पिटाई

फूल खिलने दें  कि यही होंगी
बिगड़ गए ज़माने में उम्मीद का साज़ 
आखिरी  वक़्त का मीठा सा अलफ़ाज़
माँ के बाद लोरी की आवाज़ 
बिस्तरे मर्ग पर कलमे का एहसास

इसीलिये ए अज़ीम इंसानो! 
आज की बेटियों को उडने दो
वक़्त के बाज़ से भी लड़ने दो
चांदनी भेड़िये की जंग में
नारा ए इंक़लाब पड़ने दो
कि बेटियों के लहू के छीटे
जब कभी भी ज़मी पे पड़ते हैं
फूल खिलते हैं 















शनिवार, 2 सितंबर 2023

सुनो


 

जब 

मधुश्रुत की पागल बयार छाएगी 

सूनी रजनी दुल्हिन सी शर्माएगी 

तब 

सुबह सेज के सुमनों को छू लेना 

इनमें तुमको मेरी सुगंध आएगी 

(अज्ञात ) 

मंगलवार, 9 मई 2023

 वाह रे भई ! 

 फूफी सितारा मेरे बचपन की  उन क़दीम यादों में से हैं जो अपनी चमक दमक और रोशनी से बहुत देर तक ज़हन  पर छाये रहते हैं. उनके परांदे हों या पायलें , चूड़ियाँ हो या चुटीले सब के सब जिन रंगबिरंगी आतिशी  रोशनियों से सजे रहते थे उससे वह औरत कम और झाड़ फानूस ज़्यादा नज़र आती थी. और बच्चों का क्या है ! उन्हें तो पसंद  ही ऐसी चीज़ें आती हैं.  मैं  उनकी  गोद में बैठ खुद को किसी मलिका से कम न समझती थी।  उनके दुपट्टे में जड़े सितारों से खेलते  हुए मुझे लगता था जैसे मैं जन्नत में आ गई हूँ।  दरअसल वह मेरी सगी फूफी न थीं , ताईज़ाद बहिन जिन्हें सब आपाबेगम कहते थे ,  की दूरदराज़ की ननद थीं। चूंकि आपा बेगम के  बच्चों में और मुझमे ज़्यादा अंतर नहीं था इसी वजह से जो वे सब बोला करते थे वही मैं भी बोल दिया करती थीं। फूफी सितारा बड़ी चहकी महकी घूमती थीं। 

मुझे उनकी सबसे बेहतरीन   बात यह  लगती थी कि मेरे अलावा वह किसी और बच्चे  को गोदी में नहीं  बैठाती थीं।  मेरे गोल गोल गालों और घुंघराले बालों से खेलने में उन्हें बहुत मज़ा आता था और वे और लोगों की तरह उन्हें खेंचती , तोड़ती मरोड़ती न थीं बल्कि बड़ी मोहब्बत से उन्हें सहलाती रहती थीं , गोया कि मैं कोई पालतू बिल्ली हूँ. शफ़ी भाई अटाले वाले उनके ख़ास दोस्त थे , जब भी वे बर्फ का गोला या बुढ़िया के बाल उन्हें खिलाने लाते वे उन्हें सबसे पहले अक़ीदत से मेरी नज़र करतीं , जब मेरा इंकार होता तभी वे खुद खातीं। कभी कभी हिसाब की कोई पर्ची वे मेरे हाथों शफी भाई को ज़रूर पहुंचवाती। खैर उससे क्या! बी अम्माँ कहती थी कि बड़ों के काम आना चाहिए , बड़ों के काम आने वालों से अल्लाह मियाँ खुश होते हैं. इसी से मैं उनके काम अक्सर आया करती थी.

बात करने का उनका अंदाज़ बड़ा निराला था , और क्यों न हो वे उस ज़माने में मीर तक़ी मीर के शेर पढ़ा करती थी , " इश्क़ में हमने ये कमाई की , दिल दिया , ग़म से आशनाई की। " उनका एक अंदाज़े गुफ़्तगू तो मैं आज तक नहीं भूली. वह कि हर बात के खात्मे पर उनका एक तकिया कलाम जुड़ जाया करता था वह था, " और वा रे भई !" मसलन " मैंने खाना खाया , पानी पिया , आकर बैठी , और वा रे भई!" " गुड़िया! ये चिठ्ठी उस शफीउश्शायान को दे आ , फुर्सत पा और वा रे भई !" और सब खाना खा चुके , मैं बर्तन धो लूँ और वा रे भई !!" गरज़ ये कि वह और उनका ''वा रे भई' मेरे लिए बड़े मायने रखते थे और मुझे लगता था कि वो मेरे लिए बहुत अहम् हैं. पर अहम् कहाँ ! मुन्ने मामू के इन्तिक़ाल के बाद से मुझे उनसे दूर रहने की हिदायत दी जाने लगी , बबली आपा का कहना था कि " मैंने उन्हें मुन्ने मामू के इंतेक़ाल में बड़ी गलत हालत में देखा है!! तुम उनसे दूर ही रहो !" इस स्टेटमेंट के बाद मेरा दिमाग उनसे ज़्यादा एक लफ्ज़ पर अटक गया था। मैं अंदाज़ नहीं लगा पा रही थी कि " गलत हालत " क्या होती है ? बबली आपा ने उन्हें कैसे देखा होगा? कहीं उन्हें चिकन पॉक्स तो न हो गया हो ? या कहीँ वह टी वी पर आने वाले जासूसी क़िस्सों की तरह वह बम लगाती तो बरामद नहीं हुईं ?? एक दिन मैंने बबली आपा से पूछा , " ये गलत हालात क्या होते हैं , जिसमे उन्होंने फूफी सितारा को देखा था " , जवाब में उन्होंने मेरे गाल पर एक चांटा रसीद किया। मैंने उसके बाद उनका ज़िक्र न किया , चंद एक रोज़ बाद उनका ब्याह हुआ फिर वे न जाने कहाँ गईं.

आज पूरे छब्बीस साल बाद , साढ़े चार साल की वे नन्ही यादें  आकर ताज़ा हुईं जब मेरी दूर दराज़ की बहिन के निकाह में फूफी सितारा मिलीं! जाने मोहब्बत का कौन सा नाता था, यों पहचान गईं जैसे अभी अभी अलग हुए हों. कुछ नहीं बदला था,फूफी ज़रा बूढी  लग रहीं थीं , मगर रख रखाव का क्या कहना!  खंडहर बता रहे थे ,  इमारत बुलंद थी.   बहरहाल! इधर उधर की बातों के बाद,  क़िस्से और वाक़ये  निकलने लगे ," क्या कर रही हो आजकल?" उन्होंने बड़ी मोहब्बत से सवाल किया।  " मैं !!!! आजकल मैं इश्क़ के क़िस्से लिखती हूँ " मैंने राज़दाराना  लहजे में धीमे से फुसफुसाया , " गोया इश्क़ न हो किसी को मार डालने की साज़िश हो ". फूफी की आँखों में एक चमक आकर ढल गयी.  " गाँव जाती हो ? " उन्होंने आहिस्ते से पूछा " शफी दिखते हैं "  जी ! मैंने धड़कते दिल से वह वाक़या याद किया जिसमे लफ्ज़ " ग़लत हालत " शामिल थे, और जिन्होंने मुझे एक अरसा बहुत  परीशान किया था। चलते वक़्त उन्होंने मेरा कॉन्टेक्ट नंबर लिया और वादा किया कि फोन ज़रूर लगाएंगी. 

इस तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में कौन किसे याद रखता है!  सबको भागने की जल्दी है पर पहुँचना कहीं नहीं है! मैं बड़बड़ा रही थी कि अचानक फोन बजा , " ऐ गुडिया ! वक़्त है , बात करोगी ? "  उधर से फूफी सितारा की तक़ाज़े करती आवाज़ सुन मेरा दिल फिर धड़क गया , लफ्ज़ " गलत हालात " मेरे ज़हन में फिर से धौंकनियाँ पीटने लगा।  " वो तू क्या कह रही थी उस दिन ! कि  आजकल तू इश्क़िया क़िस्से लिक्खे है  देख बन्नो! तू बचपन से मेरी ग़म गुसार रही है।  मेरी ख़ास !! मेरा भी एक क़िस्सा है , लिखेगी ? " अंधा क्या चाहे , दो आँखे!!  हाई फूफी सितारा !!! जी में आया गले लग जाऊं उनके पर कम्बख्त " ग़लत हालात " का  तक़ाज़ा था , दिल थाम कर रह गयी। एक हसरत सी रह गयी थी ,  साढ़े अट्ठारह में तो इनका निकाह हो गया था , फिर कब इश्क़ फरमा लिया इन्होने !!!  " जी कहें !"  मैंने बड़े एहतराम से कहा।  

" शफ़ी ! का बाड़ा और हमारा बाड़ा आमने सामने था. कभी हमारी मुर्ग़ी उधर अंडे दे देती तो कभी  उनके  चूज़े  उड़ उड़ के हमारे बाड़े में। !  एक रोज़ मुर्ग़ियां पकड़ते पकड़ते टकरा गए दोनों , बड़ी ज़ोर का सिर फूटा , उधर उनके अब्बू ने आवाज़ लगाई , " शफ़ी ! किधर मर गए , दूकान नहीं चलना क्या !!!"  शफ़ी मुझे घूर रहे थे,  " आता हूँ अब्बू !  मेरी वजह से ज़रा , सितारा का सिर फूट गया है !!!" वह मुझे घूरते घूरते ही चिल्लाये।  " अरे तो कफ्फ़ारे में उससे निकाह कर के ही आएगा क्या ! " उनके अब्बू चिल्लाये तो मैं शरमा कर अपने घर भागी , वे अपने घर. उस दिन के बाद से जैसे कुछ होने लगा। गुलाब का फूल और बेले के गजरे से होते हुए बात कब मलाई के दोने तक आ गई खुदा जाने ! दिन सरकते गए।  मुए, मरजाने फोन तो थे नहीं ! ले दे के वही हिसाब का काग़ज़  और वा रे भई! अरे वही ! जो तुम्हारे हाथ से मैं शफी को भिजवाया करती थी. उन्ही में दिल की गुज़री लिख देते थे.  फिर मुन्ने मियाँ के इन्तेक़ाल से बात जो फिरी के वा रे भई! अरे वही मुन्ने मियाँ ! जो एक सौ बीस साल की उम्र में  भी दुनिया छोड़ने को तैयार न थे !  उनके इंतेक़ाल को बच्चे तो जैसे कुछ समझ ही नहीं रहे थे। अपनी मस्ती में मस्त. उधर मैं पिछवाड़े वाली कोठरी में पालक साफ़ कर पकाने की सुध ले रही थी कि  मय्यत के बाद चूल्हे पर हांडी न चढ़ सकेगी , उधर वे मय्यत को नहलाने को कपूर लेने पिछवाड़े वाली कोठरी में आये , हमने तन्हाई पाई तो ज़रा देर को हिलमिल लिए।  ज़रा नज़दीक क्या आये ,   बबली , बिट्टन , गुड्डू , अच्छू  समेत सब के सब बच्चों की फ़ौज  लुका छिपी करती कोठरी में आ गयी।  हम अलग हों तो कैसे , मेरे गले का तीन लड़ा हार इनके क़मीज़ के बटनों में ऐसा अटका कि वा रे भई! लिहाज़ा ! भांडा फूटा , कुटाई हुई और मैं आनन् फ़ानन   में खुद से बारह साल बड़े सज्जाद मियाँ टाल वालों से ब्याह दी गई. रज्जो, छुट्टन, और पिंकी तो खैर से हो गईं पर रानी ! जैसे ही लड़का हुआ , मैंने सास के पैरों में पड़ उसका नाम शफी रखवा लिया. "  चल गुड्डो ! तू क़िस्सा लिख मैं शाम का खाना देखूं! और वा रे भई !!! 

वह पहला इश्क़ था , वह भूल नहीं पाई और जी भी ली।  इस बार मैं सोंच रही थी , " वा रे भई !"  


गुरुवार, 28 जुलाई 2022

        रहने दो , छोडो भी , जाने दो यार 

" यह हमारी ज़िन्दगी के साझे एक साल के लिए. " नितिन उठे और एक सुंदर गुलाब की हल्की गुलाबी कली उसकी तरफ बढ़ाई।  उसके दाहिने हाथ में पर्स और बाएं हाथ में टिफ़िन बैग था।  उसने मुस्कुरा कर अपना सिर उसके सामने कर दिया।  नितिन मुस्काये और ताज़ा फूल सारा के बालों में अटका दिया और सारा लम्बे लम्बे डग भरती ऑफिस के लिए निकल ली। ऑटो रिक्शॉ मिलते ही वह थक कर ऐसे सुस्ताई जैसे मैराथन जीत ली.  पंच कॉर्ड की याद आते ही उसका दिल धड़कने लगा. " हे राम !कहीं  ऐसा न  हो कि घर पर छूट गया हो !"  उसने धड़कते दिल से पर्स में हाथ डाला, एक नीले स्कार्फ में अटका हाथ जैसे यादों में ही अटक कर रह गया।  " तुम्हे पता है  आज हमने इक्कीस २१ जून  पूरी की हैं वह भी बिल्कुल साथ साथ. " साथ साथ  का यह साथ तुम्हारे सिर पर नीले अम्बर सा छा जाए , इसी लिए यह नीला स्कार्फ! "  अभि की साझी सरगोशी सारा को कुछ ऐसे भिगो गयी मानो  कल ही की बात हो।  उँह!  मोहब्बत कुछ नहीं होती , रिश्ते ज़रूरतों पर टिके होते हैंऔर एक दिन जब आपकी ज़रूरत नहीं रहती , किसी को आपसे  मुहब्बत नहीं रहती।  उसने सिर झटका और अपनी सोंच परे फेंकी. फेंकते फेंकते भी  जैसे एक ख्याल  चिपक ही गया।   उसकी चिपचिपाहट से आखें जैसे जलने लगीं और उनमे से गर्म गर्म पानी सा आता महसूस होने लगा. ये स्कार्फ  उसके साथ हमेशा रहता था , जब कुछ नहीं था  तो क्यों रहता था ? 

    समीक्षा , अभिषेक ,  सारा और नितिन बचपन से  दूसरे के साथी थे. जिस फैक्टरी में अभिषेक और समीक्षा के पिता क्रमशः मैनेजर और जी. एम. थे सारा और नितिन के पिता उसी कंपनी के द्वितीय श्रेणी कर्मचारी। यह वह दौर नहीं था जबकि पब्लिक स्कूलों, या अंग्रेज़ी स्कूलों की भरमार थी।  केंद्र सरकार का उपक्रम होने से इस फैक्ट्री के स्कूल में कर्मचारियों के बच्चों  की  शिक्षा का निशुल्क प्रबंधन था इसी से सब साझे पढ़े थे. सारा और अभिषेक की माताओं को पति के स्टेटस की खातिर अपनी फिगर, किटी पार्टी के मैन्यू सी ही मैंटेन करनी होती थी, इसी से घर नौकरों के हवाले था और बच्चे नैनी के। किन्तु समीक्षा और नितिन मध्यम वर्गीय परिवारों के वे बच्चे थे जिनमे घर छोटा होने से, बच्चों के साँसों की रफ़्तार भी मातापिता तक स्वयं पहुँच जाया करती थी. वे बच्चों  जो प्रेम की ऊष्मा और आत्मीयता की लौ से ऊर्जा लेते हैं  प्राय:     



रविवार, 6 फ़रवरी 2022

रहे न रहें हम...... Webdunia se sabhar .....

सन्डे की सुबह , लम्बी  कोरोना  पॉज़ी टिव रह कर हालिया नेगेटिव हुई.   घर सर  र  ही आ रहा था. कहाँ से क्या शुरू करूँ की जद्दोजहद से  हले लता जी का एकाध गीत  सुन लिया जाए , दिन भर के लिए कामों की प्लानिंग आसान  हो जायेगी! खुद ब खुद जैसे मोबाइल पर प्ले हुआ, " चिट्ठिये दर्द फ़िराक़ वालिये/ लेजा लेजा संदेसा सोणी यार दा...." मन मनिहारा हुआ अपनी ही चूड़ियों में खोया था कि खबर आई आज मौसीक़ी के हाथों की चूड़ियाँ चटक गईं.... ब्रीच कैंडी अस्पताल में लता जी का पार्थिव शरीर अपनी आभा  ऐसे बिखेर रहा है मानो स्वर्ग की वस्तु स्वर्गीय होने जा रही है थोड़ा समय और निहार लो...  लिखने वाले ने लिख डाले मिलन के साथ बिछौड़े।

मेरा मन पीछे भागने लगा,  मैं  खुद को फिलिप्स का अपना रेडियो सेट बाहों में भरे  फर्स्ट ईयर की अभी अभी जवान हुई लड़की सा महसूस करने लगी , कानों में उनका गाया वह गीत गूंजने लगा  जो मैंने पहले पहल सु ना था , " तेरे बिना ज़ि न्दगी से कोई शिकवा तो नही...." और लगा बड़े मौसा जी पीछे से आ कर कह रहे हों, आवाज़ बढ़ा दे ज़रा ! लता दीदी का गाना है। .."  फिर से विविध भारती सुनने वाली दोपहरी समाअत के दालानों में अपने होने  का एहसास कराने लगीं...    गुड्डी चाची! आवाज़ बढ़ा दो ज़रा!  अकेले अकेले मत सुनो।  ज़िंदगी और कुछ भी नहीं , तेरी मेरी कहानी हैं....., नाहिदा बाजी! अंताक्षरी में  " भ " से क्या गाओगी?  " भँवरे ने खिलाया फूल , फूल को ले गया राजकुमार"! कहाँ हर घर  मुहैया था रेडियों , एक चला दे तो पूरा टोला , पूरा मोहल्ला और पूरी चॉल  सुन लेती थी कि लता दीदी गए रही हैं  ले 

उन दिनों दोपहरी लम्बी लगती थी, मोहल्ले टोले की औरतें आँगन लीपते, गेहूं चुनते और दीवाली की सफाई करते लता दीदी के गाने गुनगुनाया करतीं ," सात समुन्दर पार से, गुड़ियों के बाज़ार से... , तुम मुझे यूं भुला न पाओगे..... , अजीब दांस्ता है ये.., ज्योति कलश छलके... और मेरी माँ का सदा सर्वदा का पसंदीदा , " नैनों में बदरा छाये... विविध भारती को तो पहचान ही लता जी की आवाज़ से मिली थी , और जब फरमाइशी गीतों वाले खत में रेडियों आर्टिस्ट लता जी के गाने सुनाने की फरमाइश के साथ हमारा नाम क्या पढ़ती लगता था , लता जी हमारे बिलकुल करीब हैं , साथ साथ ! कौन ऐसी गायिका होगी जिसके स्वर को पीडियों का प्यार मिला है , मुझे दादी के व्यथित स्वर सुनाई देते हैं मानो मनुहार करते कह रहे हों, " दो हंसों का जोड़ा बिछुड़ गया रे.... सुनवा दे  रेडियो पर.... थोड़ा जी लगे.....|  

यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर मिलते  गोपाल भइया  अपनी प्रेमिका को अपनी पत्नी ऐसे ही तो नहीं बना पाए थे .... कैसे बावले हो जाते थे जब भाभी गाती थीं, " फूल हंसा चुपके से...." नैपथ्य में तो लता जी ही हंसती थी,  सुवर्णा दीदी और पराग भइया का गुपचुप परवान चढ़ता प्रेम , " मुझे तुम मिल गए हमदम.... " या  "हमको मिली हैं आज ये घड़ियाँ नसीब से......"   और नब्बे के दशक का मेरा पहला पुरुष मित्र जिसने मुझसे मित्रता एक गीत सुनने के बाद की थी, " सिर्फ एहसास है ये , रूह से महसूस करो......  " एक दशक से भारत के हर आँगन के दुख दर्द में  लता जी के स्वर शामिल रहे , शगुन , बधाई , प्रेम विछोह, सेहरा, घोड़ी , फेरे या बिदाई  और पीढ़ियों के दुःख में शामिल आवाज़ आज  हमें सदा सर्वदा के लिए छोड़ गयी. 

मुझे बाई स्कोप की बातों के दौरान कमल शर्मा जी द्वारा सुनाया गया   प्रसंग याद आ रहा है , जिन दिनों लता जी ने गाना प्रारम्भ किया था, इंडस्ट्री में शमशाद बेगम जैसी गायिकाओं की  तूती  बोलती थी , सधे हुए पल्ले की साड़ी में लिपटी षोडशी ने जब   झिझकते हुए पहला गीत रेकॉर्ड किया था ,  शमशाद बेगम ने उनका माथा चूमा और खुश हो कर , एक रुपया उनकी हथेली  पर धर आशीर्वाद दिया, " जियो और नूर बन कर पूरी दुनिया पर छा जाओ...  लता जी ने उस सिक्के को आशीर्वाद समझ पूजा घर में  छोड़ा और पीछे मुड़  कर नहीं देखा !  ये वह दौर था जब कलाकारों  में एक दूसरे को लेकर गहरी मोहब्बत हुआ करती थी.

कहते हैं, महान कलाकार अपने सीने में बड़े दुःख छिपाये जीते हैं, और यही दर्द उनकी प्रतिभा के शिखर का अंतिम पड़ाव होता है. जीवन भर स्वर उपासिका रही लता जी ,  जिन की आवाज़ में नूर का पूरा सूरज छिपा था, जिसने हर मौके पर हर जज़्बात को जुबां दे दी , इस मुल्क की हर दोशीज़ा के सन्देश को उसके आशिक़ तक पहुंचाया स्वयं अपने प्रेमी से यह न कह सकीं कि शिद्दत की किन इन्तेहाओं से गुज़र कर वे उनसे कितना प्रेम करती थी! राज सिंह डूंगरपुर (जो प्रेम से लता को मिट्ठू कहते थे ) अपने अंतिम समय तक लता जी से प्रेम करते रहे , लता भी उस मोहब्बत को सीने में छुपाये सुपुर्दे ख़ाक हुईं, बेशुमार जज़्बातों में रूह फूंकती आवाज़  अप् ना  ही हाल दिल नहीं कह पाई , शायद ये अधूरापन इन्हे फिर से दुनिया में आने को मजबूर करे , कौन जाने दीदी इस अधूरी ख्वाहिश को पूरा करने ही दुबारा आएं और हमें लता दीदी फिर मिल जाएँ....     

सब खाम ख्याली है... कश्मीर से प्रोफेसर फिरदौज़ का फोन आया है  , कह रहे हैं " चिनारों की सुर्ख़ियों के गीलेपन की क़सम है सहबा! लता दीदी जन्नत से उतारी गईं, अल्लाह का वह करिश्मा थीं जो आवाज़ का गौहरे ,नायाब था....   सरहद पार से आबिदा परवीन के दुखद स्वर रेडियो सेट पर गूँज रहें हैं, वे व्यथित सी कोई श्रृद्धांजलि गा रही हैं.....    टीवी पर खबर आ रही, " लता जी का अंतिम संस्कार पूरे राजकीय सम्मान के साथ  शिवा जी पार्क में होगा। सरहदें अपने झगड़े भूल गईं हैं, सियासतें सहम गयी हैं और सत्ता , सत्ता कुर्सी कुर्सी गाने वाले स्तब्ध भाव से देख रहें हैं कि आज सचमुच की वह मलिका जा रही है जिसने पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के दिलो पर राज किया और जिनकी जगह कोई भी कभी भी नहीं ले सकता .......  

सीमा पार से 

रविवार, 23 अगस्त 2020

क्षमा

 क्षमा 

क्षमा क्षमा प्रियवर

आत्मीय, वंदनीय क्षमा ! 

हर दुर्बलता वश हुए पाप पर 

हर झूठ, हर द्वंद, हर कलाप पर 

हर युद्ध, हर वध, हर प्रपंच छल पर 

हर दीनता, हर विवश हल पर 


क्षमा करना हे आत्मीय मुझको 

कि जन्म मानव का मिला है 

दानव कर्म भी करने होंगे 

पाप और पुण्य से आगे 

मुझको  कुछ कर भरने होंगे 


कच्ची मिट्टी का घट हूँ 

ईश्वर की कमज़ोर कृति हूँ 

भारी मन से क्षमा दिवस पर

प्रिये! तुम्हारे समक्ष नति हूँ 


क्षमा दान दे कर के मुझको 

तुम भी अपने कर्म सजा लो 

एक तनिक सी भिक्षा देकर 

तुम अमरों का लोक ही पा लो 

           डॉ सेहबा जाफ़री🙏🙏🙏🙏 (उत्तम क्षमा)