www.hamarivani.com

सोमवार, 30 जुलाई 2012



खुली आँखों में सपना झांकता है
वो सोया है कि कुछ कुछ जागता है

तेरी चाहत के भीगे जंगलों में
मेरा मन मोर बन कर नाचता है

मुझे हर कैफियत में क्यों ना समझे
वो मेरे सब हवाले जानता है

मै उसकी दस्तरस में हूँ मगर वह
मुझे मेरी रज़ा से मांगता है

किसी के ध्यान में डूबा हुआ दिल
बहाने से मुझे भी टालता है

सड़क को छोड़ कर चलना पडेगा
कि मेरे घर का कच्चा रास्ता है.
                                                     - परवीन शाकिर

रविवार, 22 जुलाई 2012

चाँद मुबारक- परवीन शाकिर की क़लम से


पूरा दुःख और आधा चाँद
हिज्र की शब् और ऐसा चाँद

दिन में वहशत बहल गयी थी
रात हुई और निकला चाँद

यादों की आबाद गली में
घूम रहा है तन्हां चाँद

मेरी करवट पर जाग उट्ठे
नींद का कितना कच्चा चाँद

इतने घने बादल के पीछे
कितना तन्हाँ होगा चाँद

आंसू रोके, नूर नहाये
दिल दरिया तन सहरा चाँद

जब पानी मे चेहरा देखा
तूने किसको सोचा चाँद

बरगद की एक शाख हठा कर
जाने किसको झाँका चाँद

रात के शानों पर सर रक्खे
देख रहा है सपना चाँद

हाथ हिला कर रुखसत होगा
उसकी सूरत हिज्र का चाँद

सहरा सहरा भटक रहा है
अपने इश्क में सच्चा चाँद

रात के शायद एक बजे हैं
सोता होगा मेरा चाँद

बुधवार, 18 जुलाई 2012

एक मंज़र



उफक के दरीचों से किरणों ने झाँका
फ़ज़ा तन गयी रास्ते मुस्कुराए

सिमटने लगी नर्म कोहरे की चादर
जवाँ शाखसारों ने घूँघट उठाये

परिंदों की आवाज़ से खेत चौंके
पुर  असरार  लय  में रहट गुनगुनाये

हंसी शबनम आलूद  पगडंडियों से
लिपटने लगे सब्ज़ पेड़ों के साए

वो दूर टीले पे आँचल सा झलका
तसव्वुर में लाखों दिए झिलमिलाये


                                                      - साहिर लुधियानवी

रविवार, 15 जुलाई 2012

उसने फूल भेजें हैं.......

An ill girl on a bed under cover Stock Photo - 3631971 


उसने फूल भेजें हैं....
उसने फूल भेजें हैं
फिर मेरी अयादत को

एक एक पत्ती में
उन लबों की नरमी है
उन जमील हाथों की
खुश गवार हिद्दत है
उन लतीफ़ साँसों की
दिलनवाज़ खुशबू है

दिल में फूल खिलतें हैं
रूह  में चरागाँ है
ज़िंदगी मोअत्तर है

फिर भी दिल ये कहता है
बात कुछ बना लेना
वक़्त के खजाने से
एक पल चुरा लेना
काश! वो खुद आ जाता
                                   -परवीन शाकिर 

सोमवार, 9 जुलाई 2012

तेरा मेरा नाम


तेरा मेरा नाम खबर में रहता था
दिन बीते एक सौदा सर में रहता था

मेरा रास्ता तकता था एक चाँद कहीं
मै सूरज के साथ सफ़र में रहता था.

सारे मंज़र गोरे गोरे लगते थे
जाने किसका रूप नज़र में रहता था

मैंने अक्सर आँखें मूंदे देखा है
एक मंज़र जो पस मंज़र  में रहता था

काठ की कश्ती पीठ थपकती रहती थी
दरियाओं का पाँव भंवर में रहता था

उजली  उजली तस्वीरें सी बनती हैं
सुनते हैं अल्लाह बशर में रहता था.

                                  -राहत इन्दौरी, कलामे ए राहत "नाराज़" से.

शनिवार, 7 जुलाई 2012

"बड़े अच्छे लगतें हैं.......!"

अल्लाह ख़ैर! "मारिया अब्बास वेड्स अज़हर वारसी" हाँ! था तो शादी कार्ड ही. मै ख़्वाब भी नहीं देख रही थी  और लिखा भी बिलकुल यही था. मेरे लब खुले के खुले रह गए और ज़हन भागते हिरन सा माज़ी में चला गया.  उसके बचपन की आवाज़ गूँज उठी " अप्पी! आप चा (क्या)  कल्लई हो! चा पतंग उला लही हो?" या उसे छेड़ देने पर, उसका गुस्से में कहना," एक लात पलेगी तो मल जाओगे!"   

ददिहाल की मै आख़िरी विकेट थी, और ननिहाल की सेकिंड लास्ट. मारिया सबसे बड़ी ख़ाला, जिन्हें हम ख़ाला अम्मा कहते थे की नातिन. उम्र में मुझसे आठ नौ साल छोटी, लिहाजा उसका बचपन मुझे कुछ ऐसे हिफ्ज़ था जैसे हिस्ट्री के लेसन. मारिया उसके खानदान की सबसे बड़ी बेटी और उससे छोटा उसका चचाज़ाद उर्फी. पहली दफे मारिया के ददिहाल गयी तो ( वह छः एक बरस की और मै चौदह पंद्रह की)  मारिया हाथ में "चम्पक"  लिए उर्फ़ी से बतिया रही थी,  "भैया! आओ हम आपको एक कहानी पढ़ कर सुनाये- चुत्रू मुत्रू की कहानी." चुत्रू मुत्रू! ये कौनसा लफ्ज़ है? मेरे ज़हन ने मुझसे ही सवाल किया. मुझसे रहा न गया मै उठ कर गयी, और चम्पक में देखा, वह थी 'चुन्नू मुन्नू की कहानी' . लिखने का अंदाज़ कुछ ऐसा  था कि बच्चे उसे चुत्रू -मुत्रू ही पढने पर आमादा थे. बहुत समझाने पर भी नहीं मानी वह. चुत्रू मुत्रू ही चलता रहा, और हमसब बड़े "चुत्रू मुत्रू की कहानी" का  लुत्फ़ लेते रहे.  खूसूरत, जिद्दी, गोल मटोल गुडिया सी मारिया.उसने मुझे कभी ख़ाला नहीं कहा बस अप्पी ही कहती थी..
 
                      मेरे आते ही बैग बंद, बातें चालू. मुझे भी लाड दुलार करने और रोब गांठने को वही एक थी, मेरी प्यारी मारिया.
 
 बच्चों को कुरआन पढ़ाने वाली आपा आतीं उन्हें पढ़ातीं तो क्या! बिना समझाए अरबी भाषा रटातीं और चली जातीं. दालान में तख़्त पर हिल हिल कर क़ुरान रटती मारिया और तीखे तेवरों वाली उस्तानी बी. तेज़ छडी की तड तड पड़ती मार और बेहद खुराफाती मारिया! "चलो पढो ! अइया का न'बुदू, व अइया का नस्त'इन (ऐ रब! हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझसे ही मदद मांगते हैं). "आईं! ये अइया क्या होता है! शायद उस्तानी बी भूल गयीं हों! मै खुद सही कर लेती हूँ" , उसके नन्हे ज़हन ने सोंचा और उसने पढ़ा, "भैया का न'बुदू, व भैया का...." साथ ही भाई पढ़ रहा था, उसे लगा शायद अरबी में उसे कुछ कहा जा रहा है. यह कह रही है तो ज़रूर कोई संगीन मामला है, अभी सही करता हूँ!!!  "लो बीबी! हमारा कायका न'बुदू!! तुमारैयी होगा, मारिअका न'बुदू.... " अब हो गयी जंग शुरू, इसने उसे मारा, उसने इसे नोचा, धींगा, मुश्ती, मार कुटाई.  हम सब लोगों का हंस हंस के बुरा हाल. दादी अम्मी ने उस दिन , दिन भर इन्हें धूप में खड़े रखने का फतवा जारी किया, उस्तानी से माफ़ी मंगवाई और अल्लाह से भी माफी मंगवाई, कुरआन के लफ़्ज़ों की बेहुरमती पर.

छुट्टियों में मारिया हमारे हाँ आती तो बस, अब्बू की तो उड़ के ही लग जाती! पता नहीं क्या क्या उगनी- तुगनी सिखाया करते मारिया को! मसलन " बेटे घर में कोई मेहमान आये तो कहो, "आओ थको!" , और जाए तो कहो: "टाटा टलो !" " और मारिया अगर उसे मेहमानों पर एप्लाई कर देती तो अम्मी अब्बू की वह जंग छिड़ती की इतिहास की सारी जंगें शर्मा जाएँ!!
और जब वह स्कूल में दाखिल हुई तब!स्कूल का नाम था "अरिहंत पब्लिक स्कूल"  बिलकुल शाकाहारी स्कूल. मैडम ने बच्चों को सवाल दिया: "राईट द नेम ऑफ़ थ्री थिंग्स यू ईट?" पहला दिन, लिहाज़ा बच्ची समझी नहीं, उसने मेडम से पूछा " इसमें क्या लिखना है?"
                                                 - "आप जो खातीं हैं, उसका नाम लिख दीजिये"  मेडम ने समझाया!
                                                 "मच्छी (मछली) , गोस (गोश्त) , मुलगा( मुर्गा)  उसने लिखा.
                                                 -"आप ये सब खा लेतीं हैं! मेडम का मुह  हैरत से खुला ही था कि उसने चट से जड़ा: "न! मै तो बछ बोती -बोती (बोटी बोटी) खाती हूँ!"



मै मुस्कुरा उठी.हाथ में पकडे शादी कार्ड को भाभी बेगम को थमाया, "लीजिये! मारिया के निकाह का दावतनामा! "
                            - "अरे निकाह तो होना ही था, गादी वाली कोठली के क़िस्से के बाद! " भाभी ने तंज़ किया.
                                 - क्या किस्सा!!! मै हैरत से बुत बन गयी.
" बेगम! हम ही नहीं सारा खानदान कह रहा है, वरना वह लन्दन पलट, एक से एक लडकियां रिजेक्ट करता फिर रहा, उम्र में उससे दस साल बड़ा!!! उसे इस मुटल्ली में क्या ख़ूबी नज़र आयी होगी भला!!!" भाभी ने मुझे लताड़ा.
-  "ये खानदान है या देवकी नंदन खत्री का  नोवेल! अरे! क्या होगा भला उस मुई कोठरी में !  मैंने भाभी को सुनाया.
-"बीबी! बिना गादी के भी बहुत कुछ हो जाता है, तो फिर उस कोठरी में तो गादियाँ  रक्खी हुई थीं, तुम ही सोच लो! क्या हुआ होगा. " भाभी ने हाथ नचाये.
मै बुरी तरह उबल कर रह गयी. पूरा खानदान गादी वाली कोठरी के काण्ड को रो रहा था. सब दूर बातें बनायी जा रहीं थी, मुझसे रहा न गया, मैंने फोन घुमाया: " मारिया! अप्पी बोल रही हूँ!तुझे मेरी जान की कसम! तेरे मुगलों, पठानों के खून  का वास्ता! बता मुझे , उस दिन गादी वाली कोठली में क्या हुआ था!"
"अप्पी! " उसकी आवाज़ से मेरा दिल धडका! अप्पी, जब इनकी अम्मी हमें देखने आयीं न! तो उन्ने अम्मी से कहा 'ऐ भेन! अल्लाह ने भी इत्ता हक तो दिया है , लड़के की लडकी से बात करा दो!" हम गादी वाली कोठली में बैठे, आपको तो पता है, संदूक पर जमी तमाम गादीयों  पर हम एक झटके में उचक के चढ़ जाते हैं, बस! वईं पे बैठे  थे. ये बात करने आये, हमने कहा 'यईं पे बैठ जाइए!' जब ये बैठे तो क्या कहें! सारे गद्दे रजाइयां फिसल कर नीचे, एक तरफ ये पड़े एक तरफ हम. 'सुनो! हमें कुछ बात करनी है', ये कपडे झाड़ते बोले, " कुछ नई सुनना हमें! जब चढ़ना नयी आता था, तो क्यों चढ़े, हमें उतरा लिया होता!!!"  हमने बी इनकी फ़िलुम खेंची! "अब पहले गादी जमवाओ, फिर सुनेंगे तुम्हारी बातें!"  लिहाज़ा वे गादियाँ  जमवाने लगे, और आख़िरी गादि पे बोले 'सुनो! किसी से कहना मत गादी वाली कोठली में क्या हुआ था' अगले दिन इनकी अम्मी ने रस्म करदी! अप्पी! हमें दिखे! ये बिचारे डर के मारे मुस्से शादी कर रहें हैं कहीं मै इनका राज़ न खोल दूं कि लन्दन पलट लड़का गादियों पे चढ़ना भी नहीं जानता!!! " 
अल्लाह! मैंने माथा पीट लिया, अट्ठारह साल एक माह की दुल्हिन! मेकअप से  पाक चेहरा, शैतान मगर हद दर्जे की मासूम!! गोल मटोल साफ़ ज़हन और साफ़ दिल की शफ्फाफ लडकी. इतना हुस्न किसी को भी पागल बना दे, फिर  अज़हर तो इंसान है! मुझे भाभी बेगम पर शदीद गुस्सा आया.
मैंने सुना, रेडियो पर गाना आ रहा था : "बड़े अच्छे लगतें  हैं, ये धरती, ये नदिया, ये रैना और तुम....."          

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

सावन की इस सुबह



सावन की इस सुबह
चुपके से यादों में
बोलो तुम क्यों आये?

आँगन में पौधों पर

फूलों पर, पत्तों पर
बरसाती खुशबू से
मुझ पर ही क्यों छाये

खिड़की की चौखट पर

मौसम की आहट से
बरसाती झोंकों में
पगलाए वंशीवट से
यमुना के तीरे तीरे
श्याम सलोने नटखट से
राधा की पायल से गुंजित
वृन्दावन के पनघट से
स्मृति की नदिया में
अश्रुपूरित नीरव तट से
कालिदास के मेघ सलौने
बोलो! मुझको क्यों भाये 

सावन की इस सुबह
चुपके से यादों में
बोलो तुम क्यों आये?