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मंगलवार, 25 जून 2024

आख़िरी औरतें



        वे कौन सी औरतें थीं जो तड़के उठ, आँगन बुहार, दरख्तों में पानी दे, आफताब की तुलू होती नर्मी को आँखों में जज़्ब कर लिया करती थीं? वे कौनसी औरतें थीं जो कोहबर की मुंडेरें साफ़ करतीं, चाहर दिवारी से गर्दन निकाल मोहल्ले के सुख दुःख में शरीक हो जाया करती थीं?  वे कौन सी औरतें थीं जो आँगन के परिंदों की क़ुव्वत आज़माने को थाल भर अनाज फटक कर खुर्री खाट पर खुला छोड़ जाया करती थी? अज़रा को इमला लिखवाते लिखवाते मैं ज़रा देर को रुकी ही थी कि मोबाइल बज उठा , “सुबह सादिक़ इंदौर से निकल लिए थे कि सीमा की बेटियों के लिए गुडिया दे आयें , तुम शैड्यूल मैं कहीं नहीं थीं , पर कमबख्त दिल के किस कोने में कुण्डली मारे बैठी हो, कि छूटती नहीं जो मुंह लगे जाती हो!” उधर से एक जली कटी पर बेहद मानूस आवाज़ कानों में गूंजी. मैं इस जज़्बात से हंसी गोयां जलतरंग बज उठे हों.   “क्या हुक्म है मेरे आक़ा!”  बड़े ड्रामाई अंदाज़ में मैंने भी सवाल दाग़ा. “ कुछ नहीं! बस फ़टाफ़ट रेडी हो लो, गुडियें देकर अभी आते हैं . मैंने फौरी तौर पर अज़रा को रिहा किया और ख़ुद तितलियों की रफ़्तार से वार्डरोब से कपडे निकाल तैय्यार होने लगी. मेरी बेहद अज़ीज़ और करीब दोस्त मय दूल्हेभाई नमूदार होने वाली थीं और अगले ही लम्हें हम सीमा की गुड़ियों को गुडियें देने वाले थे.

सीमा की बेटियों को क्या सोचा, गोयां  वक़्त के कोह ए काफ से, लम्हों की एक फाख्ता ही यादों के खोशे थामे निकल आई हो; उसकी बादामी चोंच गठरी बनी चीकू को सीमा की गोदी में गिरा कर देवमालाई धुंध में फुर्र हो गयी हो और शाखे -सनोबर से चाँद जब झांका हो, सीमा का हाथ थाम, उसकी टांगों से चिपकी चैरी वहाँ पहले से ही मौजूद हो. इनकी पैदाइश हम सखियों के लिए ऐसी ही जादू भरी थी जैसे लडकियां न हों झील किनारे कलोलें करती परियां हों. लिल्लाह!  कितनी नफासत, कितना भोलापन और कितनी ताज़गी! मानों रब की तखलीक का मुकम्मल शाहकार हों. एक हिरनी सी चंचल दूसरी बत्तख सी बेलगाम. एक की आँखों में शरारत तो एक सरापा शरारत. एक जब गाती तो उसकी आवाज़ चाँद की रोशनी में साहिली रेत पर आराम करती जलपरियों को भी रक्स करने पर मजबूर कर देती और दूसरी अपनी हीरे सी अँगुलियों को हरकत देती अपने नाज़ुक पैरों को ठुमकाती तो ऐसा लगता जैसे किसी कठपुतलीसाज़ ने डोरियों की मदद से एक नाज़ुक कठपुतली ही स्टेज पर उतारी हो. हाथ लगाने की कोशिश करो तो चिड़ियों सी फुर्र हों जातीं .

 मेरे ज़हन में पिछली दफ़े ईद के मौक़े पर इनसे हुई  मुलाक़ात ताज़ा हो आई. तब मम्मा और पापा अपनी बुझती निगाहों के बेशकीमती जुगनुओं के साथ मुझसे भी ज्यादा इनका इंतज़ार कर रहे थे. मम्मा ने इसरार कर, बेटियों के लिए पता नहीं क्या क्या अलोना सलोना बनवा लिया था. जब ये आईं तब मेरा घर घर था, और जब गईं बारिश के बाद का भीगा भीगा बाग़ीचा हो गया था. नन्हे मुन्ने बर्तन, दीगर छोटे मोटे बबल मेकर्स, कुछ सीपियाँ और मेरे पंसदीदा नन्हें नन्हें जानवर (जिन्हें मैं चालीस पार भी मर मर कर खरीद लाई थी) सभी खुश होकर अपने अपने खोलों से बाहर निकल आये थे और फिर मम्मा के कहने पर एक हफ्ता मैंने मेज़ ही नहीं संवारा था.  कितनी ही आहटों में, घर में अपने होने के एहसास छोड़ गईं थीं दोनों. एक , जैसे पहली बहार की जानिब बढती नौशागुफ्ता कली तो दूजी, “ चाँद का टुकड़ा, फूल की डाली, कमसिन, सीधी, भोली भाली. अल्लाह रे ! लड़कियां थीं कि  मजाज़ की दो ज़िंदा नज्में. जो एक बार उनकी बातों के रेशम में उलझे , रोज़ ब रोज़ उलझना चाहे. मैं जज्बातों के समन्दर में गोते लगा ही रही थी कि सखी मय दुल्हेभाई दरवाज़े पर हाज़िर थी. जल्द अज़ जल्द बगैर किसी आवभगत मैं उन दोनों की कार में सवार हुई और मौसम जैसे मुस्कुरा उठा. बारिशें यों बरसीं कि आज ही पूरा बरस लेंगीं और फिर यों हुआ कि शहरे झील के बनफ्शी  बादल बिजली के हमआहंग  जल थल एक कर बैठे. बेचारे दुल्हेभाई! निरे हिन्दुस्तानी आईक्यू वाली बेगम और बेहद बेअक़ली  साली के बीच (अल्लाह अलिक्सा का भला करे, उसी के दम पर)भीगते भटकते  सीमा के घर पहुंचे. इधर आसमानी दोशीज़ा की आँखों में बिजली काजल आंज रही थी उधर सखी के इसरार दूल्हे भाई से बढ़ते जा रहे थे , “ साहब ! किनारे से दो मोतिया और आसमानी छतरियां भी ले दीजिये, नुक्कड़ से दो चार टॉफियाँ  भी ले लीजिये.” गरज़ ये कि बेटियों के लिए आज सारा जहान ख़रीदा जाने वाला था.

अल्लाह अल्लाह कर के अजन्ता परिसर आये. और भीगते भागते मौसम के बीच जो सखी के घर क़दम रखा तो मालूम चला कि बेचारी अभी अभी ही महेश्वर से लौटी है . (हमें उसे यूं ज़हमत देते हुए हुए ज़रा तकल्लुफ न हुआ कि आख़िर फिर उस गाने का क्या होगा  जिसमे लिखा है , “ दुश्मन न करे दोस्त ने वह काम किया है.....”)  अभी तो वह बेचारी नर्मदा की सस्त्र्धारा के हज़ारहाँ नसों में भीगती सीमाब चाँद की उन्नाबी थकन से उबर भी न पाई थी कि हम मेहमान बने नमूदार हो गए थे. हो सकता है उसने हमारी आमद पर हवा में हाथ फैला सुरमई अंगडाई ले मारे थकन और कोफ़्त के  एक ज़ोरदार गाली दी हो पर उससे हमारी ग़ैरत पर ज़रा भी असर न हुआ और मय ख़ालिस हिन्दुस्तानी बोसे , हमने उससे इस्तकबाल वसूल लिया. चिंघाड़ती हवाओं के शरीर झोंके हमसे पहले घर में दाखिल हो चुके थे, और हमारी आमद पर बेहद हैरान धान की दो सब्ज़ बालियों सी दो नन्ही परियां हमारे इस्तकबाल में एक दूसरे से सटी खडीं थी. मेरी दोस्त ने आगे बढ़ कर उन्हें थाम लिया, सीमा मुझसे लिपट गई और दूल्हेभाई  नज़दीक की खिड़की से चिंघाड़ते मौसम में अपनी कार की हिफाज़त का मुआयना करने लगे. चैरी,चीकू हमें ड्राइंग रूम में बैठाने लगीं और सीमा पानी लेने किचन में दाखिल हुई. गुड़ियों का सब्ज़ डिब्बा खोला गया और झिलमिलाते लिबास की गुलाबी विलायती गुडिया बेसाख्ता सामने आ गई. गुडिया क्या थी , लगता था सचमुच की कोई विलायती दुल्हिन जैसे अब बोली कि तब बोली. उसकी बिल्लौरी आँखों में चांदी के हज़ारों शम्मादानों की झिमिलाहट झल मार रही थी, और गुलाबी नारंजी बाल चिनार के किसी घने दरख्त से दिलावेज़ ठंडक का इशारा दे रहे थे. क्रिश्चयन दुल्हिन के अधखुले वेल के शबनमी धुंधलके उसके गुलाबी गालों की खूबसूरती में बेइन्तेहाँ इजाफा करते लगते थे और उसके बनफ्शी लिबास की चमक! उफ़ अल्लाह , लगता था जैसे बर्फ़ीली चट्टानों पर आफताब की किरनों का रक्स चल रहा हो. लो इतनी खूबसूरत बेटियों के लिए इससे अच्छी गुडियें भी भला बनती होंगी!!! बेटियें गुडियें देख रहीं थीं और हम सब निहाल होकर उन्हें देख रहीं थी.

तभी चीकू भाग कर गुड़ियों का पिटारा उठा लाई. उसमे लम्बी, मोटी, छोटी नाटी हर किस्म की गुडिया मौजूद थी. किसी के एक कान नहीं था तो  किसी के हाथ और टांग  फौत हो गए थे. किसी के ढ़ीले हुए लिबास की ज़रा सी फिसलन से हज़ारों नग्मे फूटने लगते थे तो किसी के लहराए दुपट्टे पर शायर कसक कर दिल थाम लेते थे.   मां के मेकअप से किसी को ख़ूबसूरत बनाने के चक्कर में बेढब कर दिया गया था तो किसी को काला पोत दिया था. रंगे पुते चेहरे कहीं मुहीब शोले उगल रहे थे तो कहीं हंसी की शबनमी फुहारें फूट पड़ती थी. “और अब बेचारी यह नई गुडिया भी कुछ दिन में ऐसी हो जायेगी” चैरी के तंज़ पर चीकू ने उसे घूरा. “ पर कोई बात नहीं! अभी तो सब उसका खैर मक़दम करने ख़ुद चल कर आई हैं” ,अगले ही लम्हे मेरी सखी ने सब संभाल लिया. कोई गुडिया एक्सीडेंट में पैर तुड़ा बैठी थी कोई आँख खो आई थी. किसी का हाथ घायल था. बक़ौल चीकू , “ सब कामकाजी गुडियें थीं और आखिरकार बड़े बड़े मुल्कों में ऐसे छोटे छोटे वाक़ियात होते रहते हैं”

मौसम अपने साज़ पर संगत दे रहा था और सीमा अपने किचन में खाना बनाने में मशगूल. “ क्यों न इसका नामकरण संस्कार कर दिया जाए” मेरी पंडिताइन सखी हुमक कर बोली . हाँ हाँ ज़रूर . चीकू जोश में आ गयी . मारे हंसी के चैरी के दाहिने गाल में गड्डा पड़ गया और दूल्हे भाई ज़रा देर को थोड़ा सा मुस्कुरा लिए. मैंने गुड़ियों की तरफ से राय पर “हाँ” की मोहर लगा दी और हम सब बारिश के इस सुरमई दिन को यादगार बनाने में लग गए. आनन् फानन में सब हरकत में आ गए. मेरी पंडिताइन सखी ने पूजा वाली गादी संभाल ली; ईवेंट मैनेजमेंट चैरी की तरफ़ से हुआ; गुड़िया चूँकि चीकू की गोद में दी गई थी सो बतौर “गुड़िया की अम्माँ”  मैंने जल्द अज़ जल्द अपने दुपट्टे की धानी साड़ी पहिना उसका आँचल चीकू के सिर पर  डाल  दिया. खाने दाने के इन्तेज़ामात गुडिया की नानी उर्फ़ सीमा की तरफ से थे और     फोटो और विडियोग्राफी  दुल्हे भाई के  ज़िम्मे डाल दी गयी थी.पूजन के लिए धूप दीप, अगर, पाँच फल और दीगर इन्तेज़ामात हो गए थे और ख़ास मेहमान की हैसियत से जनाबे मुहतरम “ छोटा भीम” ने शिरकत की थी. 



आख़िरकार कई नाम सुझाए गए. हिन्दी , चीनी , तुर्की रूसी और अज़रबेजानी नामों के ढेर लगा दिये गये. पर अपने आँचल से अपनी नाज़ुक गर्दन हिला चीकू बिया बस इनकार ही करती रहीं. “आपका मसअला क्या है भई, मुहूर्त बीता जा रहा है”, पन्डिताइन सखी मारे कोफ़्त के तन सी गयी. “गुडिया अंग्रेज़ है और नाम उस तेहज़ीब के नहीं”  सधी हुई आवाज़ में बेहद सलीके से चीकू जी ने मसला बताया जो क़तई जाइज़ था चुनांचे मुहरत को रोक लिया गया , नए नामों पर हरकत हुई और समन्दरों की लहर से लिबास को देख मेरे दिल ने कहा , समन्दरों की बेटी का नाम क्यों न “ओशीन” हो! अपनी पतली बाहों से रज़ामंदी का इशारा दे चीकू ने नाम कुबूल किया और सभी गुड़ियों के बीच मानों खुशी की लहर दौड़ आई. मन्त्रों की आवाज़ और अगर की खुशबू के बीच नाम रखाई का काम अंजाम दिया गया. और प्रसाद बाँट दिया गया. सबने खूब  तालियाँ पीटी और दुल्हे भाई ने सारे रस्मों रिवाज़ को कैमरे में क़ैद कर उसे यादगार बना दिया कि अचानक “एक मिनिट!” नाच गाने के बीच ब्रेक लगाती चीकू की आवाज़ गूंजी, “ गुडिया हिन्दुओं के घर आई है, ब्राह्ममण मौसी उसे लाई है, उसका नाम मेरी मुस्लिम मौसी ने रखा है और ख़ुद गुडिया क्रिश्च्येन है, अब भला ऐसी गुडिया का धरम स्कूल के फॉर्म में क्या लिखा जाएगा !”  चीकू संजीदा हो गई थी.

लिल्लाह! “इन्हें फिर्कापरस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे / ज़मीं से चूम कर, तितली के टूटे पर उठाते हैं”  मुनव्वर राना साहब आहिस्ते आहिस्ते मेरे कानों में सरगोशियाँ करने लगे. “ यह गुडिया हमारी गंगो जमुनी तहज़ीब का बेहद सुनहरा वर्क है प्यारी ! मैंने उसमे नाजुक बालों में हाथ फिरा उसे बाहों में भर लिया. यह हमारे मुल्क की साझी विरासत का ज़िंदा शाहकार है; इस बात की चश्मदीद गवाह कि आर्यों, शको, हूणों, कुषाणों और मुगलों में से वही लोग यहाँ खेल पाए जिनकी नीव मोहब्बत रही ... आख़िरकार हमारी मिलीजुली तहज़ीब किसी नावेल का मकालमा या अखबार की सुर्खीं तो नहीं थी कि जिसे फरामोश कर दिया जाए....मशीन लर्निग और आर्टीफीशियल इंटेलिजेंस के दौर में यह गुडिया इंसानियत का आख़िरी निशान है.... उन औरतों की आख़िरी विरासत जिनके लिए तारीख पूछा करेगी , वे कौन औरतें थीं जो आफताब की तुलू होती नर्मी को आँखों में जज़्ब कर लिया करती थीं? वे कौनसी औरतें थीं जो कोहबर की मुंडेरें साफ़ करतीं, चाहर दिवारी से गर्दन निकाल मोहल्ले के सुख दुःख में शरीक हो जाया करती थीं?   वे हिन्द की शेरनियाँ ....  यह गुडिया उनकी विरासत ..इसका धरम हिन्दुस्तान है , यह गुड़िया हिन्दुस्तानी है. ..चीकू की आँखे चमक गईं , हमने आमरस और लड्डुओं के साथ सीमा के हाथों बना बेहद लज़ीज़ खाना खाया. और वापसी में मै सोच रही थी मग़रिब से मशरिक़ तक जंगों के बीच झूलती ज़मीन में अम्नो अमां की तहज़ीब ज़िंदा रखने वाली हम वे आख़िरी औरते होंगी कि आने वाले नौनिहाल जिन्हें शायद किताबों में तलाशेंगे.