शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015
गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015
कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में
कितनी मुद्द्त बाद मिले हो, वस्ल का कोई भेद तो खोलो
कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो
क्या अब भी, इन रातों में ख़्वाबों के लश्कर आते हैं
क्या अब भी नींदों से नींदों पुल जैसे बन जाते हैं
क्या अब भी पुरवा कानो में गीत सुहाने गाती है
क्या अब भी वह मीठी आहट, तुम्हें उठाने आती है
क्या अब भी छू जाती है , तुमको भरी बरसात तो बोलो
कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो
क्या अब भी सोते में तुम बच्चों से जग जाते हो
क्या अब भी रातों में तुम देर से घर को आते हो
क्या अब भी करवट करवट, बिस्तर की सिलवट चुभती है
क्या अब भी मेरी आहट पर सांस तुम्हारी रुकती है
क्या अब भी है लब पर अटकी , कोईं अधूरी बात तो बोलो
कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो
क्या अब भी मेरी खिड़की से तेरी सुबह होती है
क्या अब भी तेरे शीशे की धूप किसी को छूती है
क्या अब भी होली के रंग में एक रंग मेरा होता है
क्या अब भी यादों का सावन तेरी छत को भिगोता है
क्या अब भी मेरे होने का, होता है एहसास तो बोलो
कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो
नींद से जागे नयन तुम्हारे, क्या आज भी बहके लगते हैं
रजनीगंधा " मेरे वाले " क्या आज भी महके लगते हैं?
मुझको छू कर आने वाली हवा तुझे महकाती है ?
मेरी चितवन की चंचलता, नींदें तेरी उड़ाती है ?
अब भी जाग के तारे गिनती होती है हर रात तो बोलो !
कैसे कटे दिन हिज्र की धूप में, कैसे गुज़री रात तो बोलो
-सेहबा जाफ़री
शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015
हैप्पी वैलेंटाइन डे
सहरा सहरा, गुलशन गुलशन गीत हमारे सुनियेगा
याद बहुत जब आएंगे हम, बैठ के सर को धुनियेगा
आज हमारे अश्क़ों से दामन को बचा लें आप मगर
ये वह मोती हैं कल जिनको शबनम शबनम चुनियेगा
हमसे सादा -दिल लोगों पर ज़ौक़े असीरी १ ख़त्म हुआ
हम न रहे तो किसकी ख़ातिर , जाल सुनहरे बुनियेगा
दिल की बातें तूलानी हैं, और ये रातें फ़ानी हैं
मैं कब तक बोल सकूँगा आप भी कब तक सुनियेगा
जिस 'सेहबा ' के दिल देने के क़िस्से से नाराज़ हैं आप
उसने आख़िर जान भी देदी , ये भी एक दिन सुनियेगा
- सेहबा अख़्तर
१ -क़ैद का मज़ा
मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015
कश्मकश
आँखों में अब न नींद है, सोएं किधर से हम
ख्वाबों की रहगुज़र में , खोएं किधर से हम
ख़ुशियों के जो शजर थे, ख़ाली थे, बेसमर थे
इस रुत में नए आसरे , बोयें किधर से हम
टूटे हैं इस क़दर कि, खाली हैं अब तो आँखें
आंसू में तेरा दामन, भिगोएं किधर से हम
चाँद के बरक्स ख़्वाब, बढ़ते ही ढल गए
टूटी हुई आरज़ूएं , पिरोएँ किधर से हम
शब के अगर क़रीब हों, तो चाँद भी मिले
शब के मगर क़रीब होएं , किधर से हम
सिलसिलए- परिशानिये- हयात देखिये
ये सोंच मुस्कुराएं हाँ, की रोएँ किधर से हम
सहबा जाफ़री
सदस्यता लें
संदेश (Atom)