सावन आये दो दिन गुज़र गए हैं. भरे सावन में मरे टाईफाइड की मार झेल रही मै
जलकुढ़ कर बेकार ही कोयला हो रही थी कि अब्बू का फोन आया, "नईम भाई आ रहें
हैं, गाडी भेज दी है, तुम आ जाओ." मै जानती थी, अब्बू को मेरी नहीं, प्याज़
और अजवाइन के पकौड़ों की याद आ रही थी, अपनी सूनी अमराई में मल्हार की
तानों की याद आ रही थी, और याद आ रही थी, छत पर सावन की झड़ियों में चाय के
कप थामे गप्पेबाज़ी करने की. सच्ची! अब मुझे लगता है, मम्मा सही कहतीं हैं,
"हरकतों में तो पूरी अपने बाप पर पडी हो तुम!" मै भी कौन यहाँ बड़ी खुश
हूँ! फ़ौरन बैग में दो एक केप्री, एक दो टी-शर्ट ठूँसे, घर के लोअर- टी शर्ट
पर ही अपने पहनावे को थोडा तहज़ीब वाला बनाने को बुर्का डाला,खास खास
दोस्तों को अपने ना होने की इत्तेला दी और तैयार. नईम भाई बड़े अच्छे
ड्राइवर हैं, पूरे रास्ते उनसे बतियाने में, गाँव और मोहल्ले भर की ख़बरें
लेने में रास्ता कैसे कट गया मालूम ही नहीं चला.
मौसम सुहाना, घर की छत, गुलमोहरों के मंज़र, लिपीपुती ज़मीन से उठती
सौंधी सौंधी महक, और मज़े की बात! मामा स्कूल गयी हुई थी." आज तो उड़ के
लगी है हम बाप बेटी की!" अब्बू हमेशा की तरह मुस्कुराए, और मुझसे बैग लेकर
निगाहों ही निगाहों में बोले, मै भी मुस्कुराई गोयाँ कह रही हूँ, "अभी हाथ
मुह धोकर आती हूँ फिर करते हैं धमाल." सामान रक्खा ही था कि देहलीज़ पर से
"सर! कहाँ हो!!! भाभी जी कह गयीं थी दूध लेने का, ये लेओ लेलिये हम!!!" की
जानी पहचानी आवाज़ करती सावित्री चाची. "का हो चौखट पर खडामे (चप्पल)
किसकी धरी है! " उन्होंने टीवी लाउंज में झाँका."मै आयी हूँ चाची! " मै भाग
कर उनके गले लग गयी. "ई लेओ! दौनों बिटिया आ गयीं! अरी! मोना भी आयी है
ससुराल से, बिब्बो, नीतू, छोटी, चरखी, रिहाना, सबैयी हैं बिटिया! मिर्ची
के डंठल तोड़ते तोड़ते, फुलवारी सुधारते , अंगनाई लीपते खूब संगत होगी
ढोलक पे! हमरी कोयल जो आ गयी है!!" चाची ने गोयाँ अगले कामो की लिस्ट ही
थमा दी, क्या क्या करना है, किस किस से मिलना है, कौन कौन आया है ससुराल
से, और गाना तो गाना ही है, बहाना नहीं चलेगा!!!. ये अमीर खुसरो ज़रूर
हमारे ही गाँव के रहे होंगे, "आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा" मेरे
ज़हन में बरबस ही खुसरो का कलाम गूंजा!!!
"अब्बू! चक्कर से आ रहे हैं थोड़े" वाकई कमजोरी की वजह से मुझे चक्कर आ
रहे थे, मैंने कमरे में आकर फिर आँख लगाने की कोशिश की ही थी कि बहुत सारी
पायलें बहुत सारी चूड़ियाँ और बहुत सारी आहटें, एकदम से मेरे सर पे.
अरे!!!! छम्मी, छोटी, चरखी, नीतू, रेहाना, पायल, मिन्नू सब की सब मेरे सर
पे सवार! क्या क्विक सर्विस है चाची की भी! " क्यों री!!! अकेली छुपी बैठी
है, मरी सोंच रही थी, हमें नहीं मालूम चलेगा! " "अरे दोगली भूल गयी ना
हमें!" " अरी! पांचे-गट्टे, हंडे कुलिये, गुड्डे गुडिया , संजा गरबे सब
भुला दिए ना!!!" मै कुछ कहूं उसके पहले ही, लानत-मलामत, आंसू और इल्ज़ामों
की बौछार सी होने लगी. "हाई दैया!!! ताप है इसे तो" चरखी ने मेरा हाथ
थामा. मुझे बेसाख्ता मुनव्वर राणा याद आने लगे: "तुम्हारे शहर में मय्यत को
सब कान्धा नहीं देते!/ हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिल कर उठाते हैं..."
लगता है एक फेरा लिया होगा इस गाँव का उन्होंने!!! अल्लाह! मरियों!!! मुझे
टाईफाइड हो गया है तुम सब की सब भी ना!!! हम सब की सब सतबहिनियों जैसी एक
दूसरे में उलझ पडीं कि एकदम से मिन्नू को सूझी, "क्योँ री!!! अन्ग्रज्जी
बुखार तो नहीं हुआ तुझे! (पिछली दफे उसकी शादी पर आयी थी तो उसे एड्स के
बारे में समझाते हुए मैंने ही उसे एड्स का नया नाम बताया था.) कहने की देर
थी कि सब फिक्क से हंस पडी. नीतू मेरी इस बेईज्ज़ती को बर्दाश्त नहीं कर
पा रही थी. "खबरदार! तोहका बाबा जी की कसम, जो हमरी बबुनी के ऐसन बोली"
उसने ठेठ देसी अंदाज़ में मिन्नू को घुड़का. "लेओ देख लिओ अपने ही अखियन से!
अरे गाँव भर में कित्ते जोड़ी चाचा जी-चाची जी, और कित्ते दर्जन चचा जान-
चची जान हैं जिनका तोहार ब्याह से मतबल है!!!! , फिर कहे ना कर लिओ!" मै
हंस दी , "हमें कौन्हूँ इनकार है,अरे हमें हेए कोई पसंद ना करे!" हमें भी
नीतू की ज़ुबान सुन कलकत्ते के कोल्हू टोले से निकलने वाले अखबार
उदन्तमार्तंड की ज़ुबान याद आ गयी. "अरे तो हम् सबैयी मर गयी का, या सांप
सूंघ गया हमें! एक बार तो याद किया होता सखियों को !!" मीतू फट पडी. "ई लओ!
अब तोह से ब्याह करेंगी हम! अरी! तोहका धनी इस सावन में हमरा राम नाम सत
ही कर देगा." सब की सब खिलखिला कर हंस पडी. "सच्ची गुडिया! तू बिलकुल नहीं
बदली, अब भी देसी इत्ती अच्छी बोल लेती है." " लो! जैसे तुम लोग बदल ही गयी
हो!" अब्बू सबके लिए कुछ हल्का नाश्ता ले आये, "लो मेरी बीरबहुटियों!
खिलखिलाती रहो" 'आपने क्यों ज़हमत की अब्बू जी! हम क्या कोई गैर हैं! '
सबका अब्बू से एक ही शिकवा था. सब की सब अब्बू की स्टूडेंट थीं. मीतू
(मिताली) डोक्टर थी, चरखी (रक्षा शर्मा) का अपना स्कूल था, मिन्नू
(मीनाक्षी झा) वकील थी, छम्मी (अज़रा एजाज़ ) जर्नलिस्ट थी, छोटी (सारा
थोमस) नर्स थी, रेहाना सय्यद टीचर थी, और मै! टीचर, फ्री लांसर,
ट्रांसलेटर, मार्केटिंग मैनेजर, लेक्चरार, और पता क्या क्या होकर फिर कुछ
भी नहीं! यानी, जॉब छोड़ कर घर की ज़िंदगी जीने वापिस घर आयी थी. मिन्नू के
वकील साब ने ही उसे आज यहाँ तक पंहुचाया था, वरना उसकी शादी तक तो उसे एड्स
के बारे में भी कुछ पता नहीं था. हम सबने उसकी खूब खिचाई की थी, इसी से आज
वह बदला निकाल रही थी. "अच्छा सखियों! शाम भी होगी, रात भी होगी, बात भी
होगी, अब जाओ न! " मैंने जम्हाई ली, वाकई मुझे नींद आ रही थी, "वाह गोईं,
ऐसे कैसे, अरी अभी तो हमें कितनी बाते करनी हैं, ए गुडिया! तू बता न, कोई
पसंद है तो धीरे से कान में कह दे, बिन्नो! अब तो कर डाल शादी." " हाँ
पसंद है! वो लंबा ऋतिक रोशन पसंद है, बोल करवा देगी मेरा उससे ब्याह, वो
राहुल गांधी पसंद करता है मुझे, चल पढवा दे हमारा निकाह! सलमान, मेरे नाम
की ही तो आँहें भरता है, बता दे कब तारीख पक्की कर लूं! और तो और अटल जी
और कलाम साब भी ..... अरी बस कर !!! मोना ने मेरा मुह भींचा, "वाकई बेचारी
थक गयी होगी अब चलो आराम करने दो उसे."
थकान से कब नींद लगी कब खुली हिसाब नहीं. आँख खुली तो मामा थर्मामीटर से
मेरा टेम्प्रेचर ले अब्बू से कह रही थी, बुखार नहीं है अभी, आप थोड़े एपल
ले आइये इसके लिए. हम माँ बेटी बतियाने को हुए ही थे कि मोना, छम्मी और
छोटी फिर धमक पडीं. " सुन न! मेरे हाथों थोड़े भुने चने थमाती हुई बोली
मोना, वह पिपलेश्वर मंदिर के पुजारी को माता रानी की सवारी आती है, चल न!
वहाँ पूछ कर आयें तेरा ब्याह क्यों अड़ जाता है" "तेरी मौत मेरे हाथों
लिखी है लगता है ! तुझे पता है मुझ सख्त चिढ है ऐसी बातों से" मैंने उसे
चने खाते खाते घुड़का. चल छम्मी! यह तो मानेगी नहीं, हम ही कुछ करते हैं,
उसने चने वाला टीमटाम उठाया और चल निकली.
अगले दिन संडे था, मामा मेरी तबियत को लेकर फिक्रमंद थीं, और अब्बू मुझे
रिलैक्स करने की कोशिश कर रहे थे. कोई नहीं आया था, सिवा दूधवाले, कचरे
वाले, अखबार वाले और सब्जी वाले के, लिल्लाह! कितना सुकून है यहाँ की
ज़िंदगी में. हम लोगों ने साथ मिलकर अब्बू और मामा की ऑल टाइम फेवरेट मूवी
"बूदरिंग हाईट्स " का लुत्फ़ उठाया. एक दिन खामोशी से निकल गया. और अगले दिन
फिर वही सखियों की टोली, बातों की होली, हंसी ठिठौली." ":सुन! कर आयीं हम
तेरा पक्का बंदोबस्त, तू तो चली नहीं! देख अगले सावन कैसी हरी भरी होकर
आयेगी घर." "कक्या! क्या कर आये तुम लोग!" मैंने हैरत से उन्हें तका.
"जानती है, क्या बोली मातारानी! अरी पहले रिश्ते को ठुकराने के कारण ही हो
रहा है ऐसा, सच्ची गुडिया! पहिला रिश्ता मंगल के घर से आता है और तू! मंगल
से दंगल कर बैठी!!! "अरी कमबख्तों! जला दो अपने डिग्रियां!!" मेरा
गुस्सा अब सातवें आसमान पे था, " मै पूछती हूँ करके क्या आयी हो !"
"गुस्सा काहे करती हो, अरे तुम्हे याद है वह भूरे खाँ! हिस्ट्री के किसी
राजा की नहीं, चाँद मियाँ चूड़ीवालों के लड़के की बात कर रहें हैं हम!!!"
और बरबस ही मेरा गुस्सा हंसी में बदल मेरे लबों पे आ गया, बिलकुल
गोरा-चिट्टा, कोई दस बरस का और मै सात एक की, मेरा खासम खास दोस्त. टायर
चलाना, फिरकी घुमाना, चव्वे (कच्ची इमली) बिनना, और इक्की दुक्की अम्मा
बहिन की गालियाँ, कित्ता कुछ सिखाया था उसने मुझे, "भूरे खाँ! मेरे अच्छे
भूरे ! मेरी पतंग बढ़ा दे, और बस पतंग आसमान पे, भूरे! तेरी सायकल का एक
चक्कर लगाने दे न , और सायकल हाज़िर. चल वो गंदे पानी की कुल्फी खिला न, और
कुल्फी गोयाँ खास मेरे लिए हाज़िर. पढाई में भूरे सिफ़र था और मेरा शाब्दिक
ज्ञान शुरू से ही बेजोड़. एक दिन मुझे इम्प्रेस करने के चक्कर में टीवी से
कोई फिल्म का डाईलोग याद कर उसने चिपकाया, "गुडिया सुन!" वह और मै अंगनाई
में बैठे बैठे इमलियाँ चुग रहे थे, "हूँ!" मैंने जवाबन उसकी तरफ देखा,
"मेरे रक्त से मै तेरी मांग भर दूंगा!" क्क्य!! मेरे ज़हन में इस मुहावरे
का मतलब बड़ा साफ़ था, "कमीने, कम्बखत, तेरा नास जाए, निगोड मारे तुझे कुत्ते
उठा ले जाएँ, तेरी अम्मा का फ़लाना, तेरे अब्बा का ढमाका....मैंने पता
नहीं कौन कौन सी गालियाँ इजात करलीं, चप्पल निकाली, उसे मार मार वो कुटाई
की, कि बेचारा! पिटने के दौरान वह बार बार पूछ रहा था, "काहे मार रही हो,
उहाँ टीवी मां तो खुस हुई थी वो!!" जवाब में मै मारने की रफ़्तार और तेज़ कर
देती थी. जब मार मार कर थक गयी तो बुक्का फाड़ कर रोती हुई घर को गयी गोयाँ
मैंने भूरे को नहीं भूरे ने मुझे मारा हो. दादी अम्मी के कोर्ट में मस'ला
पेश हुआ, दादी लकड़ी टेक भूरे के घर गयीं और भूरे के अब्बू ने उसकी तबियत
से कुटाई की. मेरे बड़े भाई बहिनों ने अलबत्ता बड़ा लुत्फ़ उठाया इस वाक़िये
का और वे सब के सब भूरे को कँवर सा'ब कह कर पुकारने लगे. यह नाम इतना
फेमस हुआ कि पूरा गाँव ही उसे कवर सा'ब कहने लगा. "अरी सुन"! मीतू की
आवाज़ ने मुझे फिर माज़ी से हाल में ला पटका, "खूब सोंच समझ कर हमने आज, एक
पुतला बनाया, उस पर लिखा " भूरे की मोहब्बत" उसे विधी विधान से फूँक आये
शमशान में! अब देख इंशाल्ला, मातारानी की कृपा रही तो अगले सावन तू तेरे
मियाँ के साथ आयेगी."
मेरा मुह खुला का खुला था, और मै सोच रही थी, "उफ़! ये लडकियां!!!"